खुद के दुःख में उतने नहीं डूबे नजर आते हैं लोग,
दूसरों के सुख से जितने, ऊबे नजर आते हैं लोग।
हर गली-मुहल्ले की यूं बदली सी होती है आबहवा,
इक ही कूचे में कई-कई, सूबे नजर आते हैं लोग।
सब सूना-सूना सा लगता है इस भीड़ भरे शहर में,
कुदरत के बनाये हुए, अजूबे नजर आते हैं लोग।
कोई है दल-दल में दलता, कोई दलता मूंग छाती,
कहीं पाक,कहीं नापाक, मंसूबे नजर आते है लोग।
बनने को तो यहां आते है सब,चौबे जी से छब्बे जी,
किन्तु बने सभी 'परचेत', दूबे नजर आते है लोग।
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