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Wednesday, December 19, 2012

मर्जी के मालिक हो गए, यहाँ के सब कारिंदे है।













तन-आबरू बचाते कुछ मर गये, तो कुछ जिंदे है,
हर दरख़्त की शाख पर बैठे,डरे-डरे सब परिंदे है

खौफजदा नजर आता है, हर सरपरस्त शहर का,
क्योंकि बेख़ौफ़ सड़कों पे घूमते फिर रहे दरिंदे है।

शठ-कुटिलो का ही है बोल-बाला यहाँ  हर तरफ,  
नारकीय जीवन जी रहे देखो,सुशील (वा)शिंदे हैं।
  
यह न पूछो कि दहशत का ये आलम हुआ कैसे,     
दरवान जो थे, कुछ सोये पड़े है तो कुछ उनींदे है।

शर्म से सर हिन्द का तो, झुक रहा अब बार-बार,
किन्तु बेशर्म बने बैठे भ्रष्ट,जनता के नुमाइन्दे है।
    
दर्द हजारों है, फरियाद करें तो करें किससे 'परचेत', 
मर्जी के मालिक हो गए , यहाँ के सब कारिंदे है।

Saturday, December 15, 2012

सुनहरे तिलिस्म टूटे है


गली वीरां-वीरां सी क्यों है, उखड़े-उखड़े क्यों खूंटे है,
आसमां को तकते नजर पूछे, ये सितारे क्यों रूठे है। 

डरी-डरी सी सूरत बता रही, महीन कांच के टुकडो की,
कहीं कुपित सुरीले कंठ से,कुछ कड़क अल्फाज फूटे है। 

फर्श पर बिखरा चौका-बर्तन, आहते पडा चाक-बेलन,
देखकर उनको कौन कहेगा कि ये बेजुबाँ सब झूठे है। 

तनिक हम प्यार में शायद,मनुहार मिलाना भूल गए,
फकत इतने भर से ख़्वाबों के,सुनहरे तिलिस्म टूटे है। 

अजीजो को झूठी खबर दे दी,'परचेत' तेरे गुजरने की,
वाल्लाह,बेरुखी-इजहार के उनके, अंदाज ही अनूठे है। 

Wednesday, December 5, 2012

मैं हर घड़ी, घड़ी देखता हूँ !




दस्तूरन मैं भी एक मुसाफिर ही था और जिस मंजिल की तलाश मुझे थी वो तुम्हारे ही चौबारे पर आकर खत्म होती थी.…  मेरी मंजिल...... और मैं इकदम अकेला.......... कोई साथ मेरे यदि था तो तुम तक पहुँचने को बेकरार, ये कम्वख्त निहायत ही नादाँ और आवारा दिल। ये नालायक, यथार्थ के धरातल को छोड़ हमेशा ख्याली ऊंचाइयों के गगन में सुपरसोनिक विमानों जैसी उड़ाने भरता रहता। यह मुंगेरीलाल रूपी दिल हमेशा इसी अधेड़-बुन में उलझा रहता कि काश,  किसी तरह वह मेरी जिन्दगी को एक तोप और मेरे शरीर को एक तोप के गोले की तरह इस्तेमाल कर पाता तो  मेरे साबुत जिस्म को ही तोप में डाल,ट्रिगर दबाकर पल-भर में अपनी मंजिल पर जा धमकता। डफर, अक्सर यह भी आस लगाए रखता था कि क्या पता शायद किसी रोज मुझ पर तरस खाकर तुम्हारा कोई अजीज तुम् तक पहुँचने के तमाम अवरोध भरे रास्तों पर फ्लाई-ओवर बनाने का नेक कार्य कर बैठे, मगर, इस इडियट को ये कौन समझाता कि मंजिलों की राह इतनी आसान नहीं होती, क्योंकि बंदिशों की पथरीली,धूल-धर्सित, उबड़-खाबड़ और पैमानों की ऊंची-नीची सड़क, समाज के तमाम भीड़-भाड़ भरे उन चौराहों से होकर गुजरती है जहां कदम-कदम पर तुम्हारे अपने  सगे-संबंधी यातायात पुलिस के सिपाहियों की तरह बहिष्कार का फरमान रूपी चालान हाथ में पकडे खड़े रहते हैं, कि कब मैं खतरे की बत्ती पार करू  और ये कमवख्त,  पुलिस वाले की तरह हाथ दिखाते और व्हिसिल बजाते हुए मेरी नैया को सड़क किनारे खड़ा करके भारी भरकम चालान मेरे हाथ में थमा दें । और बस फिर वही हुआ, जिसका डर था  ............................जिन्दगी की गाडी जाम के झाम में ही फंसकर रह गई।





कभी हाथ, दीवारों पे जडी देखता हूँ,
मेज और  दराजों में  पडी देखता हूँ।

कम्वख्त वक्त का मारा हूँ, ऐ दोस्त,
इसलिए हर घड़ी, मैं  घड़ी देखता हूँ।।
 
लांघा न मेरा दर,कभी तूने फिर भी,
पल-पल सामने तुझे खड़ी देखता हूँ।

जो गुमसुम चलूं, दरख्तों के साए में,
राहें- मोड़ पर तुझे मैं अड़ी देखता हूँ।

थककर के मयखाने का, जो करूँ रुख,
तेरी मद भरी आँखें, मैं बड़ी देखता हूँ।

खुद को देखता हूँ, बिखरते हुए जब,
हाथों में तेरे प्रेम की हथकड़ी देखता हूँ।

यादों की बारात, लौट आती  है द्वारे,
शहर में जब कोई घुड़चडी देखता हूँ।

गूँजती है कानों में वही खिलखिलाहट,
हँसी की जब कोई फुलझड़ी देखता हूँ।

आईने में दीखता है, जब तेरा अक्स,
अश्कों की  आखों में  झड़ी देखता हूँ।

कम्वख्त वक्त का मारा हूँ, ऐ दोस्त,
इसलिए हर घड़ी, मैं  घड़ी देखता हूँ।