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Monday, May 28, 2012

नवाबिन और कठपुतली !












पहनकर नकाब हसीनों ने, कुछ पर्दानशीनों ने,
गिन-गिनकर सितम ढाये, बेरहम महजबीनों ने !


लम्हें यूं भारी-भरकम गुजरे ,वादों की बौछारों से,
हफ़्तों को दिनों ने झेला, सालों को महीनों ने !


निष्कपटता,नेकनीयती की नक्काशी के साँचों में,
जौहरी को जमके परखा,सब खोटे-खरे नगीनों ने !

खुदकुशी कर गए वो सब , उस सड़ते रवा को देखकर,
जोत-सींच ऊपजाया जिसको ,जिनके खून-पसीनों ने !

डॉलरिया गस खिला रहे , ईंधन में आग लगा रहे,
अध-मरों को अबके पूरा, मार दिया कमीनों ने !


उड़ता ही देखते रहे सब, उस तंत्र के उपहास को,
कुछ जो फरेबियों ने उड़ाया, कुछ तमाशबीनों ने !


हैरान हैं बहुत नवाबिन के, शातिराना अंदाज से,
शिद्दत से खाया मगर 'परचेत', हर तीर सीनों ने !

Thursday, May 10, 2012

हर ज़ख्म दिल में महफूज़ न छुपाया होता!















तन्हा ही हर दर्द-ए-गम को न भुलाया होता,
मुदित सरगम तार वीणा का बजाया होता !


सरे वक्त जलते न पलकों पे अश्कों के दीये,
हर ज़ख्म दिल में महफूज़ न छुपाया होता!


चाह की मंडियों में अगर प्रेम बिकता बेगरज,
मुहब्बत का तनिक दांव हमने भी लगाया होता !


मुद्दतों से उनीन्दे शिथिल तृषित नयन आतुर,
भोंहें सहलाकर न इन्हें खुद ही सुलाया होता !


रास आ जाती सोहबत किंचित मुए चित को,
दीपक प्यार का इक हमने भी जलाया होता !


गैरों के जुर्म-कुसूर को भी अपना कबूलकर,
सर अपने हर तोहमत को न उठाया होता !


अगर मिलती न कम्वख्त ये खलिश 'परचेत',
मुकद्दर को हमने यूं पत्थर न बनाया होता !