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Wednesday, December 28, 2011

यही वो पाप है जिसपर,जुर्माना नहीं लगता !

घर घराना नहीं लगता, सफ़र वीराना नहीं लगता,
ठट्ठा खाते-खाते अब तो, ताना,ताना नहीं लगता !



घुसे हैं जबसे डोमिनो,इटैलियन,चाइनीज पकवानों में,
'लजीज'गुम-शुदा हो गया, खाना, खाना नहीं लगता !



अपने-पराये के रिश्तों को,जख्म इतना उलझा गए,
लगते है यहाँ सभी अपने,कोई बेगाना नहीं लगता !



अंक अल्पतर पड़े जबसे,अपने उम्रदराज ऐनक के,
बहुत जाना हुआ चेहरा भी,अब पहचाना नहीं लगता !



चतुर करार दिया मुझको,मेरे प्राण-बीमा कराने पर,
यही वो पाप है 'परचेत'जिसपर,जुर्माना नहीं लगता !(*)







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(*)उलटे मुआवजा मिलता है, घरवालों को :)

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