उजड़ी-उजड़ी,
बिखरी गुमसुम सी
वह बगिया जिसमें,
फूलों की चाहत में
मिलकर बोये थे
इने-गिने बीज हमने कभी ,
पता नहीं शूल कैसे उग गए वहाँ !
यूं तो उन्हें अब
उपेक्षित ही रखता हूँ,
मगर राह चलते कमवक्त
वक्त-बेवक्त पैरों को
जख्म दे ही जाते है!
तुम्हारी हिदायतों के मध्यनजर
शब्द तो अक्सर खामोश ही रखे मैंने,
किन्तु जाने क्यों
चंद अश्रुओं के झुण्ड,
डगर पर चहलकदमी को
फिर भी निकल ही पड़ते है !!