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Friday, March 11, 2011

पलायन !

कायनात की
कुदरती तिलस्म ओढ़े,
शान्त एवं सुरम्य,
उन पर्वतीय वादियों में
जंगल-झाड़ों को,
दिन-प्रतिदिन
सिमटते, सरकते देखा,
चट्टानों,पहाड़ों को
बारिश में
खिसकते,दरकते देखा !
काफल, हीसर,
किन्गोड़ से दरख्त
खूब लदे पड़े देखे,
वृद्ध देवदार,चीड,बांज
सब उदास,
खामोश खड़े देखे !

कफु, घुघूती,हिलांस
अभी भी बोलती है,
किन्तु उनकी मधुर स्वर-लहरी,
कोई सुनने वाला ही नहीं,
ग्वीराळ, बुरांस
अभी भी खिलता है,
पर सौन्दर्य,
खुशबुओं पर मुग्ध,
पेड़ की टहनियों से उसे
कोई चुनने वाला ही नहीं !
शिखर, घाटियाँ
जिधर देखो,
सबकी सब सुनसान,
वीरान घर, खेत-खलिहान,
गाँव के गाँव यूँ लगे,
ज्यों शमशान !
शनै:-शनै: लुप्त होते
कुदरती जलस्रोत ,
पिघलते ग्लेशियर,
तेज बर्फीली
सर्द हवाओं का शोर,
बारहमासी और बरसाती,
नदियों-नालों का प्रचंड देखा,
बहुत बदला-बदला सा
इस बार मैंने
अपना वो उत्तराखंड देखा !

2 comments:

गिरधारी खंकरियाल said...

उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भी पलायन की विभीषिका समाप्त होने की बजाय अधिक बढ़ गयी है . क्योंकि ग्रामीण लोग अब देहरादून, नैनीताल , काशीपुर, या रामनगर जैसे शहरों में बसते चले जा रहे हैं. आपका दर्द मैं महसूस करता हूँ , कई गाँव खाली हो गए है किसी वृद्ध की मौत पर अर्थी के लिए भी पुरुष नहीं मिलते . अति दुखद है

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

बहुत मार्मिक !! दिल को छूने वाली रचना ... गहरा दर्द है ये पहाड़ों के प्रति ... मुझे आपकी रचना बहुत पसंद आई....जिसमे पहाडो के खुश्बू पहाड़ों का दर्द बसा हुवा है... सादर