निभा सकता है तू जहां तक और जबतक, बस निभाता रह,
सहिष्णुता तेरा मूल मंत्र है, दिखा सके जबतक, दिखाता रह ।
असुर तो हमेशा की तरह ही, पथ मे तेरे कंटक बोता रहेंगा,
फूल प्रेम के तू राह उसकी बिछा सके जबतक, बिछाता रह ।
बैरी को भले ही खुशियां तेरी, देख पाना हरगिज मंजूर न हो,
पीडा के अश्रु पीकर भी मुस्कुरा सके जबतक, मुस्कुराता रह ।
मानव सभ्यता के दुश्मन भले ही, बदन तेरा लहु-लुहां कर दे,
बोझ उनकी दुष्ठता व क्रुरता का उठा सके जबतक, उठाता रह ।
कुटिल-कायरों की अधर्म-सापेक्षता से, असल धर्म अस्तगामी है,
देह पर क्षरण के रिस्ते घावों को छुपा सके जबतक, छुपाता रह ।
गीत यही तेरा “वैष्णव जन तो तेने कहीये जै पीड पराई जाणे रे”,
हिन्द हूं, मैं हिन्द हूं,गर्व से गुनगुना सके जबतक, गुनगुनाता रह ।।
Sunday, March 14, 2010
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