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Wednesday, February 3, 2010

यही द्वन्द होने लगा है !

अब सोचने को रहा भी क्या है बाकी ,
मन को बस यही द्वन्द होने लगा है,
जिंदगी के सब ख्वाब धूमिल हो चुके,
इन्तजार का हर पहलु बंद होने लगा है !

उम्मीद दामन छुडाने को बेताब है,
धैर्य दिल का भी मंद होने लगा है,
तन्हाइयां कुरेदने लगी है जख्मो को,
असंतुलित भावो का छंद होने लगा है !

रह-रहे थे अभी तक जिस शहर में,
वाशिंदा वहां फिकरमंद होने लगा है,
पगला गया यहाँ एक और गमजदा ,
खुसफुसाहट गली में चंद होने लगा है !

छुपा दिया खुद ही को काल कोठरी में,
संग अंधेरों का पसंद होने लगा है,
अब सोचने को रहा भी क्या है बाकी ,
मन को बस यही द्वन्द होने लगा है
!

12 comments:

M VERMA said...

रह-रहे थे अभी तक जिस शहर में,
वाशिंदा वहां फिकरमंद होने लगा है,
शहर के हालात जब अनुकूल न हों तो वाशिन्दे का फिकरमन्द होना लाज़िमी है
सुन्दर

Mired Mirage said...

बहुत सुन्दर। परन्तु जीवन की यही विशेषता है कि जब लगता है कि स्वप्न बचे ही नहीं तभी जीवन का सबसे सुन्दर स्वप्न जन्म लेता है और हम उसके पीछे चल पड़ते हैं।
घुघूती बासूती

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...

मन में यही द्व्न्द्व होने लगा!
मिलन-द्वार अब बन्द होने लगा है!

सुन्दर रचना!

दिगम्बर नासवा said...

उम्मीद दामन छुडाने को बेताब है,
धैर्य दिल का भी मंद होने लगा है,
तन्हाइयां कुरेदने लगी है जख्मो को,
असंतुलित भावो का छंद होने लगा है ....

उदासी भरी है आज आपकी नज़्म कुछ ........ पर गहरी बात कहती है ........

ajit gupta said...

द्वन्‍द्व को स्‍थान मत दीजिए। दृष्टि एक ही रखिए।

Kulwant Happy said...

अद्भुत रचना।

मनोज कुमार said...

वैचारिक ताजगी लिए हुए रचना विलक्षण है।

ताऊ रामपुरिया said...

उम्मीद दामन छुडाने को बेताब है,
धैर्य दिल का भी मंद होने लगा है,
तन्हाइयां कुरेदने लगी है जख्मो को,
असंतुलित भावो का छंद होने लगा है !


बहुत बेहतरीन, शुभकामनाएं.

रामराम.

Udan Tashtari said...

बेहतरीन रचना..आनन्द आ गया.

अर्कजेश said...

अच्‍छी लगी यह कविता । शब्‍दों को बहुत ही बढी समायोजित किया है । पढने में लयबद्धता आती है ।

अजय कुमार said...

प्रतिकूल हालात में उपजे द्वन्‍द्व को अच्छी तरह से प्रस्तुत किया आपने ।

वन्दना said...

bahut hi sundar rachna.