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Saturday, September 18, 2010

जिन्दगी तू मुझे न थाम पायेगी !







मेरे दिल की हसरत जब, कोई मुकाम पायेगी,
सच कहता हूँ जिन्दगी, तु मुझे न थाम पायेगी।

बेवफ़ा मुसाफ़िर हूँ, चल दूंगा यूंही संग छोड्कर,
किसी मोड पर खुद को तू ही,  तमाम पायेगी॥

सरे महफिल उठ लूंगा  जब, मैं तेरे मयखाने से,
हाथ अपने साकी, खाली खाली सा जाम पायेगी।

यूं तो क़दमों को  अबतक अपने संभाले  रखा हूँ,
लडखडा गए पग जिसदिन, बहुत बदनाम पायेगी॥

नेकियों के बदले मिली, हमें तो ठोकरें ही सदा,
इनायतों के बदले तू भी कहाँ, कोई इनाम पायेगी।

संग चलने की तेरे, कोशिशे तो भरसक है 'परचेत' ,
संशय उस रोज का है, जब कभी नाकाम पायेगी॥








अनुभव !

कमवक्त दिल ने तो
ताउम्र,एक ही बार,
बस एक ही
चाहत माँगी थी,
इश्क का भूत
कहीं दिल में जगा।
ट्विटर पर
ट्विट्ट करते-करते
इक हसीना से जा लगा॥

वो मुझसे करती
खूब ट्वीट थी,
बाते भी उसकी
बड़ी स्वीट थी।
जब रहा न गया
तो लिख भेजा कि
ऐ हुस्न की मल्लिका!
हम तुम्हारे चेहरे का
दीदार करना चाहेंगे,
कोई उपाय बताइये ?
जबाब आया,
जनाब "फेसबुक"पर आइये॥
बस,आज की
संचार तकनीकी को कोसते हुए
दिल मसलकर रह गए!!

वक्त-वक्त की बात !

उपवन के एक सिरे पर
एक खिलता गुलाब,
यौवन से लबालब
चेहरे की रौनक संग,
मध्-भरी आँखों से
आईने को घूरते हुए
दर्पण में उभरे
अपने अक्स को
छेड़ते हुए कहता है
अरे अक्स रे,
मुझे प्रेम-रोग हो गया !

दूसरे छोर पर,
हाथों में कुछ थामे
ढलती शाम के
बुझे-बुझे से नयनों को
सूरज की ओर उठाते हुए
एक मुरझाया सा फूल,
चिंतित मन से पूछता है,
हे अक्स-रे,
मुझे कौन सा रोग हो गया ?
अक्स-रे कहे भी तो क्या ?
वो डाक्टर तो था नहीं !!

Friday, September 10, 2010

तकदीर से आजमाइश थी!

थे बादल घनेरे,
तो हुई बहुत तेज बारिश थी,
थी दिल में कसक,

तो लवो पे सिफारिश थी!

शामें उल्फत भरी थी,
कोई तन्हा न रह जाए ,
कोई मायूस न हो,
यही मन की गुजारिश थी!!

चाहता अगर रात
बसर कर देता मयखाने में,
न तमन्ना थी ऐसी,
और न कोई ख्वाइश थी!

मनाही पे भी
मिन्नते करता रहा मुकद्दर से,
बस ये समझ लो,
तकदीर से आजमाइश थी !!

शिक्षक दिवस के उपलक्ष में !

गुरु गुरु ना रहा,
शिष्य शिष्य ना रहा,
वैदिक परम्पराओ का
अब कोई भविष्य ना रहा !
निज-सुखों को त्यागकर,
देने को मुझको ज्ञान तुम
करते रहे कोशिश तमाम,
वो मेरे गुरुजी तुम ही थे,
तुम्ही तो थे !
जो ज़िंदगी की राह मे
बने थे मेरे मार्गदर्शक,
वो मेरे गुरूजी तुम ही थे,
तुम्हीं तो थे!!
इस कलयुगी समाज में,
गुरुकुल परम्परा व
गुरु-शिष्य के सर्मपण भाव का
अब वो परिदृश्य ना रहा,!
सफ़र के वक़्त में झुका था,
जब चरण छूने आपके,
गले लगाया था आपने
पलक पे मोतियों को तोलकर
वो गुरुदेव तुम न थे तो कौन था
तुम्हीं तो थे,
ऋषिकुल में कोचिंग केंद्र खुल गए
द्रोर्ण काटता जेब
एकलव्य के बाप की,
एकलव्य की भी नजर टिकी
सम्पति पर है आपकी,
अफजल गुरु बन गए
कसाब मनुष्य ना रहा !
वैदिक परम्पराओ का
अब कोई भविष्य ना रहा !!


शिक्षक दिवस के उपलक्ष में इस पूर्व संध्या पर मेरा अपने समस्त आदरणीय गुरुदेवों को दंडवत प्रणाम ! हे गुरुदेवो ! ये आपका आशीर्वाद ही था जो आज मैं इस लायक बना हूँ कि उन्मुक्त होकर यहाँ एक आधुनिक और पौराणिक गुरु का तुलनात्मक अध्ययन कर रहा हूँ ! आप सदैव मेरे पूज्य रहोगे !!!

कुचले कुछ ऐसे अरमां भी जरूरी है !

सितम सहने को तो जुबां भी जरूरी है,
दिल में धडकनों के निशां भी जरूरी है।
जख्मों को छेड़े जो पड़े-पड़े दामन में,
कुचले कुछ ऐसे अरमां भी जरूरी है॥
ख्वाइशे जो टूटी दिल की आँधियों में,
आँखों से बहा ले वो तूफां भी जरूरी है।
कभी गुने जो हमें नाम लेकर हमारा,
ऐसा इक किसी पे अहसां भी जरूरी है।
ज़रा ढकने को जमीं की लाजो-शर्म को ,
सिरों के ऊपर आसमां भी जरूरी है।
पश्चिमी हवाए अगर हदे लांघने लगे,
रुख बदलने को तालिबां भी जरूरी है॥
आसमां तले बहुत मुश्किल है बसर,
वादियों में रहने को मकां भी जरूरी है।
चाहो जिधर भी शहर बस तो जायेंगे,
संग रहने को अच्छे इंसां भी जरूरी है॥

नक्कारखाने के.... !

आज एक मित्र का ईमेल मिला, पूछा था कि आजकल आप कोई लेख-वेख नहीं लिखते ! जबाब देने की सोची तो ये पंक्तियाँ फूट पडी ;

सुबह शाम
ये जो भ्रष्ट,
नाक रगड़ते हैं
इतालवी जूतियों पर !
मैं अपना
कागज-कलम घिसकर
वक्त बरबाद करूँ क्यों,
इन तूतियों पर !!

ये तो बुजदिल
बेशर्म हैं,
मगर मुझे तो
आती शर्म है,
इन विभूतियों पर !
अपनी गुलाम मानसिकता
तो सुधार नहीं पाते,
और उंगली उठाते है
सामाजिक कुरीतियों पर !!

अप-शब्दों के लिए
क्षमा चाहता हूँ ,
मगर क्या करू
नियंत्रण रख नहीं पाता,
मैं अपने मन की
कटु-अनुभूतियों पर !
लिखकर भी क्या फायदा,
इन्होने तो सदा
नाक ही रगडनी है,
इतालवी जूतियों पर !!

अन्दर की बात !

सोचा कि बता दूं तुम्हे,
फिर कहोगी, बताया नहीं ,
महीनो से ठीक से खाया नहीं,
सिर्फ पीने पे जोर ज्यादा है !
इसलिए आजकल
ये शरीर कमजोर ज्यादा है!!


अभी भी सोच लो,
वक्त है तुम्हारे पास,
कल को मर गया,
लोग तो भूखमरी से
मौत का लगायेंगे कयास !
मगर क्या तुम खुश रह पाओगी
करके मुझे उदास ? नहीं न !!

जिसके चक्करों में पडी हो,
उसकी दौलत पे मत जाओ,
वो ईमानदार कम, चोर ज्यादा है !
दिन-रात गबन करता है,
चूँकि तुम अपने घर की इकलौती हो,
इसलिए तुम पर नहीं,
तुम्हारे बाप की दौलत पर मरता है !
सोचा कि बता दूं तुम्हे,
फिर कहोगी बताया नहीं,
महीनो से ठीक से खाया नहीं,
सिर्फ पीने पे जोर ज्यादा है !!
इसलिए आजकल
ये शरीर कमजोर ज्यादा है!!

XXXXXXXXXXXXXXX

कितना चाहता था तुम्हे, तुमको न अहसास था,
गुमनाम सी मौत मर गया, वो आशिक ख़ास था।
तड़फ-तड़फ दीवाने ने दम तोड़ा, वफ़ा की राह में,
लोगो ने भुखमरी से मौत का, लगाया कयास था।
देखकर भी न देखा कभी, इक नजर उसकी तरफ,
मगर रहता हर वक्त वो, तुम्हारे ही आस-पास था।
वो चहरे की हंसी उसकी, जिन्दादिली का सबब थी,
इन दिनों नजर आता मगर, कुछ-कुछ उदास था।
यूं मर तो वर्षों पहले गया था, तेरे रूहे-सबाब पर,
समा पे मंडराता परवाना, बस इक ज़िंदा लाश था।
जमाने की नजरों से छुपाता फिरा, अपनी चाह को,
वनवास बाद 'परचेत' , यह उसका अज्ञातवास था॥

गिद्ध बैठे होंगे, प्रजातंत्र की डाल पर !

शहीदों ने कभी सोचा न होगा,
शायद इस सवाल पर,
इक रोज उनका मादरे वतन होगा,
अपने ही हाल पर।
आम-जन ढोता फिरेगा,
अपने ही शव को काँधे लिए,
और पंख फैलाए गिद्ध बैठे होंगे,
प्रजातंत्र की डाल पर॥

ख़त्म हो जायेगी कर्तव्यनिष्ठा,
भ्रष्टाचार भरी सृष्ठि होगी,
कबूतरों का भेष धरके,
देश पर बाजो की कुदृष्ठि होगी।
जहां 'शेर-ए-जंगल' लिखा होगा,
हर गदहे की खाल पर,
और पंख फैलाये गिद्ध बैठे होंगे,
प्रजातंत्र की डाल पर॥

बेरोजगारी व महंगाई से,
गरीब का निकलता तेल होगा,
प्रतिष्ठा के नाम पर राष्ट्र के धन की,
लूट का खेल होगा।
घर भरेगा कल~ माड़ी
आबरू वतन की उछाल कर,
और पंख फैलाये गिद्ध बैठे होंगे,
प्रजातंत्र की डाल पर॥

तेरे चाहने वाले, तमाम बढ़ गए है|

सर्द मानसूनी पुरवाइयों के पैगाम बढ़ गए है,
प्रकृति के जुल्म,कातिलाना इंतकाम बढ़ गए है।
मुश्किल हो रहा अब तेरे, इस शहर में जीना,
शाम-ए-गम की दवा के भी दाम बढ़ गए है॥

तरक्की की पहचान बनी सुन्दर चौड़ी सड़कें है,
ये बात और है कि इन पर, जाम बढ़ गए है।
चुसे, पिचकाए बहुत मिलते है पटरियों पर,
इन्सां तो बचे नही, आदमी आम बढ़ गए है॥

शहर-गाँव से हुई बेदखल जबसे हया-सत्यनिष्ठा,
गली-मोहल्ले के नुक्कड़ों पर,बदनाम बढ़ गए है।
'बेईमानी' संग रचाई है, 'दौलत' ने जबसे शादी,
घरेलू उद्यमों में भी तबसे, बुरे काम बढ़ गए है॥

जन-सेवा की आड़ में अपनी तृष्णा-तृप्ति लेकर,
स्वामी-महंतों के भी कुटिल धाम बढ़ गए है।
'परचेत' कहे खुश होले, ऐ भ्रष्ठाचार की जननी,
हर तरफ, तेरे चाहने वाले तमाम बढ़ गए है॥

Thursday, June 17, 2010

ऐ जिन्दगी ! मैं संवारूं भी तुझे तो क्या सोचकर !

जख्म जो दिए, वो रखे है मैंने ज़िंदा खरोंचकर,
ऐ जिन्दगी! मैं संवारूं भी तुझे तो क्या सोचकर !

मुरादे बह गई धार में, मैं फंसा भंवर-मझधार में,
ख्वाब टूटे, साहिलों पे डूबती कश्तियों में कोचकर !

मौजे समंदर ले गया आके, उम्मीद के टापू ढाके,
किनारे पे बिखरी शिर्क आरजु, लहरें ले गई पोंछकर !

तुझसे न कोई चाव है, मन में बसा इक घाव है,
इस तरह रखूँ भी तुझको, तो कब तलक दबोचकर!

ख्वाइशे फांकती धूल हैं, गिले-शिकवे सब फिजूल हैं,
करूँ भी क्या भला,किस्मत की लकीरों को नोचकर!

'टन्न' और "चियर्स"!

एक साथ,
कई हाथ
ऊपर उठकर,
और फिर
हवा में छलकते पैमाने,
मदयम-मदयम,
'टन्न' की स्वर लहरी,
चेहरे पे
मंद-मंद बिखरती वह
सारे दुःख-दर्द,
ग़मों पर
मानो
कोई विजयी मुस्कराहट,
और मटकती आँखों का
वो नशीला अंदाज !
मुद्दत से,
सोचता हूँ
पता नहीं क्यों,
क्या खता हुई कि
कानो ने नहीं सुनी
"चियर्स" की आवाज !!

भोपाल !

वो अशुभ काली रात उनकी, राह में मौत पसर गई,
लाशों के कफ़न बेच कुछ की तो जिन्दगी बसर गई!

बच गए वे जो त्रासदी में,अपंग देह का बोझ ढ़ोकर,
न्याय पाने की उम्मीद में, सदी चौथाई गुजर गई!

क़ानून, न्याय-व्यवस्था के वो बन फिरते है रहनुमा,
इंसाफ का दम भरने वाले की, आँखों से नजर गई!

आत्मसम्मान बेच माई-बाप के दर पे बिकने वाले,
कातिल की खिदमत में उनकी,न कोर-कसर गई!

पीड़ित की बददुआओ का भी इनपर, असर नहीं होता,
दुर्बल की हाय भी न जाने क्यों, यूँ ही बेअसर गई!

Friday, June 11, 2010

कभी सोचा ?

आने वाले दौर के लोग पूछेंगे,
कि आज के दौर में ये मंज़र आये क्यों थे !
सब कुछ अगर ठीक-ठाक था,
तो हर तरफ शरीफों ने खंजर उठाये क्यों थे !
तब हम सफाई देंगे कि जी,
गलती सरकार की थी,
वो हँसेंगे और कहेंगे बेशर्मो,
तुमने ताजो-तख़्त पे कंजर बिठाए क्यों थे !!


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आत्मा,
मरने के बाद कहाँ जाती है ?
मेरी मानो तो
ताउम्र साथ निभाती है !
यूँ समझिये कि
यह शरीर एक मोबाईल फोन है,
जीवन-लीला जिसमे
एक सुरीली सी रिंग टोन है !
मस्तिष्क की-गार्ड है,
और आत्मा सिमकार्ड है!
इसमें
प्रकृति को मानो
कृत्रिम उपग्रह अगर,
तो दुनिया का पालनहार
सर्विस प्रोवाईडर !
बस आत्मा का
इस शरीर से इतना सा नाता है,
इंस्ट्रूमेंट ख़राब होने पर
सिमकार्ड को
एक और इंस्ट्रूमेंट में डाल दिया जाता है !!

विरह गीत

मीत तुम कब आओगे,
कब तक यूं तडपाओगे,
जान बाकी है,
अरमान बाकी है,
पास कब बुलाओगे,
मीत तुम कब आओगे !
झुठलाओ न मुझे,
झूठे वादों की तरह,
ये नयन झरते है
सावन-भादों की तरह,
कब तक यूं सताओगे,
मीत तुम कब आओगे !!
दिल में आस है,
मन मेरा उदास है,
क्या तुम्हे भी
यह अहसास है,
प्यास कब बुझाओगे,
मीत तुम कब आओगे !
दिल को न अब ठौर है,
बेचैनियों का दौर है,
गर तुम ना समझो ,
ये बात और है,
मर गए तो तुम हमें
बिसरा न पाओगे
मीत तुम कब आओगे !!
यहाँ सब बेगाने है,
पास भूले-बिसरे अफ़साने है
मयखाने बैठ के भी
खाली-खाली सब पैमाने है,
विरह में कब तक रुलाओगे ,
मीत तुम कब आओगे !!!

समीप तेरे मकान खोल दी मैंने


तेरे लिए मेरी जाँ खोल दी मैंने,
इक दर्द की दुकाँ खोल दी मैंने !
गम देकर बदले में खुशी ले जाना,
समीप तेरे मकाँ खोल दी मैंने !!
खरी है ज़ुबानी धोखा न बेईमानी,
सरे राह-ऐ-इमाँ खोल दी मैंने !
मुनाफ़ा जो भी हो सब तुम्हारा है,
अपने लिए नुकसाँ खोल दी मैंने !!
जुबाँ पर मेरे गर यकीं हो तुम्हे,
भरोंसे की अब खदां खोल दी मैंने !
प्यार तुम्हारे लिए रखा बेपनाह,
प्रेम-रसद बेइंतहां खोल दी मैंने !!

Wednesday, June 9, 2010

वह रीत नहीं दोहरानी है !

जीवन धार है नदिया की, उम्र बहता पानी है,
बयाँ लफ्जों में करूँ कैसे, तमन्ना बेज़ुबानी है!

पानी में उठ रहे जो बुलबुले बारिश की बूंदों से,
मौसम के कुछ पल और ठहरने की निशानी है!

रुकावटें बहुत आयेंगी हमारे सफ़र के दरमियाँ,
तू अपना हुस्न संभाले रख,मेरे पास जवानी है !

मुहब्बत का ये जूनून अगर हद से गुजर जाएगा,
समझ लेना मैं मजनू हूँ,तू मेरी लैला दिवानी है!

संग फासला तय करेंगे हम पर्वत से समंदर तक,
बिछड़ जाए दोराहे पर, वह रीत नहीं दोहरानी है !

दर्द की इक दुकाँ खोल ली मैंने !

झंझटों की पोटली मोल ली मैंने,
ब्लोगिंग जीवन में घोल ली मैंने,
गम खरीदता हूँ, खुशियाँ बेचता हूँ,
दर्द की इक दुकाँ खोल ली मैंने !

सुबह-शाम कंप्यूटर पर जमे रहकर,
वक्त कट जाता है,खुद में रमे रहकर,
फुर्सत के हिस्से का परिश्रम बेचकर,
यह चीज बड़ी ही अनमोल ली मैंने!

दिल की बात आती है जब जुबाँ पे,
सजा लेता हूँ उसे तुरंत ही दुकाँ पे,
ग्राहक को उससे कभी ठेस ना लगे,
जभी हरबात अच्छे से तोल ली मैंने!

लोग तो कहते है मुनाफे का सौदा है,
कम हानि,ज्यादा लाभ का मसौदा है,
मगर मुझे तो बात जो कहनी थी,
दुकान से ही बेधड़क बोल ली मैंने!
गम खरीदता हूँ, खुशियाँ बेचता हूँ,
दर्द की इक दुकाँ खोल ली मैंने !

हौंसला !


इसलिए प्यार है मुझे,
इसलिए मिस करता हूँ ,
उन ख़ूबसूरत ऊँचे पहाडो को,
जिनके,कहीं चिकने,
कहीं खुरदुरे सीनों पर,
मरहम की तरह लिपटी,
नरम-मुलायम बर्फ
जब पिघलकर,
बूँद-बूँद आंसुओ की तरह बहकर
कहीं ओझल होती है तब भी,
अपने ह्रदय को तड़पता छोड़
जग दिखावे को,
वह दृडता और शालीनता,
चेहरे पर ओढ़े रखता है!
वहीं लंबा, तनकर सीधा खडा,
चीड़ का पेड़,
जब ताप से बचने को लोग
शीतलता ढूंढते है ,
वह अपनी छुन्तियों से,
जेठ की तपती दोपहर में,
हौंसले झाड़ता है,
जिन्हें बचपन में हम लोग
लग्न और तत्परता से
समेटा करते थे !
छूट गई वो हिम्मत
शहर आने के बाद,
उन हौंसलों को एक बार फिर से
बटोर लाने का दिल करता है !

Saturday, June 5, 2010

सोचो-सोचो !!

सिर्फ मुद्दा उठाने व चिंता व्यक्त कर देने भर से,
क्या सोचते हो देश-तंत्र सुधर जाएगा ?
जाने-अनजाने ये विनाश का बीज जो बो रहे है,
क्या पौधा बनके हमारे समक्ष नहीं आयेगा?
सोचो-सोचो !

लिख देने या फिर किसी एक के कहने भर से,
क्या यह देश कभी सुधरने वाला है ?
देश सुधारने के लिए क्या आज हमारे बीच कोई,
भगत सिंह व चंद्रशेखर बनने वाला है ?
सोचो-सोचो !

यों भी बताने को दुनिया को हमारा इतिहास,
कभी भी प्रेरणादायक रहा क्या ?
हमारी घृणित राजनीति का चेहरा यहाँ पर,
कहीं भी मुहं दिखाने लायक रहा क्या ?
सोचो-सोचो !

इस गरीब देश की निर्जीव सी अर्थव्यवस्था में,
और होने देंगे हम कितना घोटाला ?
साठ हजार करोड़ रूपये का चूना लगा गया ,
काले चश्मे वाले का मद्रासी ग्वाला !
सोचो-सोचो !

इस लोकतंत्र की (अ)राज(क) नीति की वजह से,
आमआदमी क्या कष्ट नहीं उठाते होंगे?
जब टेड़े मुहं वाले ही आईपीएल-बीपीएल खा गए,
तो सीधे मुहं वाले कितना नहीं खाते होंगे ?
सोचो-सोचो !

किसी ने सोचा था कि १८५७ में शुरू हुआ संग्राम,
१९४७ में जाकर ख़त्म होगा ?
अगर इस नए संग्राम की अब शुरुआत हुई भी तो
यह कब जाकर ख़त्म होगा ?
सोचो-सोचो !

Friday, June 4, 2010

छिटपुट शेर !

सीने में संजोई तेरी याद, कैसे मैं भुला लूंगा,
तुम जितने मर्जी गम दो, मैं मुस्कुरा लूंगा,
गुजारिश बस इतनी है, तेरे चेहरे की रौनक न बुझे,
अपने हिस्से के आंसू मुझे दे देना, मैं बहा लूंगा !!
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खुशी सदा तेरे दर पे ठहर जाए, ये दुआ मांगता हूँ,
बस तेरी जिन्दगी संवर जाए, ये दुआ माँगता हूँ !
न कहीं जीवन सफ़र में अन्धेरा, कभी तेरी राह रोके,
तुझे हरतरफ रोशनी नजर आये, ये दुआ माँगता हूँ !!

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क्यों तूने इसतरह से पत्थर का बनाया मुझको,
मुहब्बत की सजा, ऐसी तो न दे खुदाया मुझको !
मैं सोने के वास्ते चिता पर करवटें बदलता रहा,
क्यों मौत ने न अपने सीने से लगाया मुझको !!

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डिटर्जेंट से भी जो न निकल पाए कभी
हमने रगड़-रगड़ के वो दाग निकाले है ,
आस्तीन में दोस्तों की छुपे बैठे हो जो,
बीन बजा-बजा के वो नाग निकाले हैं,
दिल में तुम्हे पढने की तमन्ना जगी तो
अंतरजाल पे ढूढ़-ढूढ़ के ब्लॉग निकाले है !

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तन्हा दिल को अपनों की बेरुखी मारती है,
मेरी आत्मा मुझको हरपल धिक्कारती है !
रंग बिखरे है पास कई सतरंगी-इन्द्रधनुषी,
किन्तु नजर एकटक शून्य को निहारती है !!

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साकी तेरे मयखाने में जाम पिया किसने,
सरे-गुलशन फूल को बदनाम किया किसने!
दिल तोड़ने से पहले ये तो पता किया होता ,
कि तुमसे ऐसा ये इंतकाम लिया किसने !!

सोसिअल स्वैप !

पश्चिम से इम्पोर्ट किया हुआ
आइडिया है यह अपने देश में,
और दिनोदिन लोकप्रिय भी हो रहा है,
सोसिअल स्वैप बोले तो
वस्तु विनिमय केंद्र,
जहां आप घर की फालतू वस्तुवे
आसानी से डंप कर सकते है !
सुनने में आया है कि
बंगलौर में ऐसे ही एक
वोमन सोसिअल स्वैप में,
बहुत सी महिलाए
अपने पतियों को साथ लाई थी !!
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और चलते-चलते:-

अपना-अपना भाग्य !

Thursday, June 3, 2010

जमाना !




क्या ज़माना आ गया कि आईने में उभरते
अपने ही अक्श का संज्ञान नंगे नहीं लेते,
सरे राह किसी को एक रूपये का सिक्का
भीख में देना चाहो,तो भिखमंगे नहीं लेते !
गली से गुजरती इक मस्त-बयार कह रही थी
कि ये दुनिया सचमुच में बहुत खराब हो गई,
इसीलिये हम आजकल किसी से पंगे नहीं लेते !!







मेरे देश के लोगो !
चोर, लुच्चे-लफंगों के तुम और न कृतार्थी बनो,
जागो देशवासियों, स्वदेश में ही न शरणार्थी बनो !

भूल गए,शायद आजादी की उस कठिन जंग को ,
खुद दासता न्योताकर, अब और न परमार्थी बनो !

पाप व भ्रष्टाचार, लोकतंत्र के मूल-मन्त्र बन गए,
आदर्श बिगाड़, भावी पीढी के न क्षमा-प्रार्थी बनो !

ये विदूषक, ये अपनी तो ठीक से हांक नहीं पाते,
इन्हें समझाओ कि गैर के रथ के न सारथी बनो!

गैस पीड़ितों के भी इन्होने कफ़न बेच खा लिए,
कुछ त्याग करना भी सीखो, और न लाभार्थी बनो !

वरना तो, पछताने के सिवा और कुछ न बचेगा ,
वक्त है अभी सुधर जाओ,अब और न स्वार्थी बनो!

मैं चिंतित हूँ !

वो अमृत तलाशा जा रहा है
जिससे कि इंसान, यानि
भ्रष्ट, कातिल, दुराचारी,व्यभिचारी
और इन सबका बाप राजनेता,
मरेगा नहीं, चिरजीवी हो जाएगा !
गर शरीर का कोई अंग
निष्क्रिय हो जाए कभी,
तो नया अंग उग आयेगा ,
अपने ही जैसा एक और
भ्रष्ट, निकृष्ट व कमीना चाहिए तो
क्लोनिंग की सुविधा भी मौजूद,
तरोताजा रहने की औषधी,
और बुढापा तो कभी नहीं आएगा !!

अभी जब इनके
घृणित, काले कारनामे देखता हूँ,
दिल को कम से कम
यह तस्सल्ली तो रहती है कि
यह दुराचारी ,
भला साथ क्या ले जाएगा ?
यों भी अब हो ही गया है वह मरने को !
मगर, अब मैं चिंतित हूँ ,
जब यह जानता है कि
इसे एक न एक दिन मरना ही है,
तब ये हाल है,
अगर यह चिरजीवी हो गया,
तो फिर क्या हाल होगा, कभी सोचा ?
इन बेहूदी खोपड़ी के
निठल्ले अमेरिकी वैज्ञानिकों को,
कोई और काम क्यों नहीं देते यारों, करने को !!

Wednesday, June 2, 2010

दो जून की रोटी !

सुबह जागा
तो अचानक याद आया,
वो पहली मुलाकात,

दो जून याद आया,
जब तुम आई थी, मेरी कुटी पे,
चंचल, झील से दो नयना,
चेहरे पे वो कातिलाना मुस्कराहट लिए,
मैंने भी संकुचाते हुए पूछा था

जब तुम्हारा नाम ,
कुछ बलखाते ,

कुछ शर्माते हुए तुमने
अपना नाम बता भी दिया था !

सुनकर, पता नहीं अनगिनत कितने
लड्डू फूटे थे मेरे मन के अन्दर ,
फिर मैंने दूसरा सवाल दागा था
कि रहती कहाँ हो ?
कितने इत्मीनान से तुमने
घर तक पहुँचने के सारे दिशा-निर्देश
एक-एक कर मुझे समझाए थे,
और घर का पता भी दिया था !!

याद है तुम्हे ,
उस वक्त मैं चूल्हे पर,
अदगुंदे गीले आटे से बनी
रोटियाँ सेकने में लगा था ,
वो ईंट मिटटी के चूल्हे पर
धूं-धूं कर जलती लकडिया,
माथे पर छलकता पसीना ,
पीतल की परात पर गुंदा आटा,
और वो चूल्हे पर रखा तौवा काला !
जब देखो,
जला-भुना बैठा रहता है ताक में,
कैसे अपनी रोटियाँ सेकूं ,
बस इसी फिराक में,
सोचता हूँ कि इंसान भी कितना
स्वार्थी और कमीना होता है साला !!

मैं उस भट्टी का
एक अकुशल श्रमिक,
तुमने देखकर तुरंत ही भाप लिया था,
और कहा था,
हटो लाओ, मैं बना देती हूँ ,
और फिर तुम्हारे हुनर को मैं
एकटक निहारता रहा था,
वो वक्त, वो खुशनुमा हसीन लम्हें,
मुझसे भूलते नहीं भुलाए !
अरसा बीता,
वो नरम, मुलायम,
तुम्हारे हाथ की बनी,
दो जून की रोटी खाए !!

Monday, May 31, 2010

सबके सब बिन पैंदे के लोटे हो गए है !

बापू, अब तेरे देश में, अच्छे लोगो के टोटे हो गए है ,
जिधर देखो, सब के सब बिन पैंदे के लोटे हो गए है !
कोई लल्लू बन के लुडक रहा, कोई चिकना मुलायम,
खुद को अमर बताने वाले, खा-खा के मोटे हो गए है !!


तेरे इस देश के गरीब की तो माया भी निराली हो गई,
धन चिंता में दिल सफ़ेद और काया भी काली हो गई !
साम्यनिर्धन हिताषियों के तो कर्म ही खोटे हो गए है,
जिधर देखो, सब के सब बिन पैंदे के लोटे हो गए है !!


पास्ता माता के चरणों में, मुखिया भी लमलेट हो गया,
जनप्रतिनिधि सिपैसलार तो जैसे फौजी तमलेट हो गया !
घर-उदर इनके बड़े हो गए, किन्तु दिल छोटे हो गए है,
जिधर देखो, सबके सब बिन पैंदे के लोटे हो गए है !!


फतवे बेचने लगे, धर्म की भट्टी पे आग तापने वाले,
कोई और बाबरी ढूढ़ रहे, राम का राग अलापने वाले !
हकदार का हक़ मारने को, रिजर्वेशन कोटे हो गए है,
जिधर देखो, सबके सब बिन पैंदे के लोटे हो गए है !!

Saturday, May 29, 2010

विकसित होता भारत देखो !

अटल, सोनिया, एपीजे, मनमोहन और प्रतिभा-रत देखो,
लालू, मुलायम, ममता , येचुरी, प्रकाश-वृंदा कारत देखो !
संतरी देखो, मंत्री देखो, अफसर, प्रशासक सेवारत देखो,
आओ दिखाएँ तुमको अपना,विकसित होता भारत देखो !!




शहर,सड़क व गलियों की 'प्रगति-ज्वर' से हया मर गई,
जन-प्रतिनिधियों की नाक तज,शर्म पलायन देश कर गई !
बेशर्मी बंद वाताकूलन में, इनकी हर ओंछी शरारत देखो,
आओ दिखाएँ तुमको अपना, विकसित होता भारत देखो !!


निर्धन कुटिया की छान को, महंगाई का बोझ ढा गया,
नेता राशन,तोप, खेल, संचार,और पशु चारा खा गया !
भूखे व्याकुल जन, मवेशी और गइया कूड़ा चारत देखो,
आओ दिखाएँ तुमको अपना, विकसित होता भारत देखो !!


style="font-size:100%;">
जन-जन की आँख में पानी है,धरा के माथे परेशानी है,
चादर ओढ़ के मुखिया सो रहा, जाग लगाना बेमानी है !
लहुलुहान हो रही धरती माता, भाई-भाई को मारत देखो,
आओ दिखाएँ तुमको अपना, विकसित होता भारत देखो !!

कहने को इस लोकतंत्र में,जिस आम आदमी का राज है,
प्रतिनिधि उसी का कर रहा उसे, दाने-दाने को मोहताज है !
लूट मची जनता के धन की, माला कंठ में धारत देखो,
आओ दिखाएँ तुमको अपना, विकसित होता भारत देखो !!





Monday, May 24, 2010

यूं भी बावफा होते है लोग !


निसार राहे वफ़ा करके जाना कि राहे जफा होते है लोग,
सच में, हमें मालूम न था कि यूं भी खफा होते है लोग !

हम सोचते थे कि ये जज्बा नेमत है खुदा की, किसे पता,
वफ़ा की कस्मे खाने वाले, इस कदर बेवफा होते है लोग !

आग लगा जाते है घरों में, दनल से नफरत करने वालों के,
बेवक्त नीर बहाने वाले, उस वक्त ही क्यों दफा होते है लोग !

प्यार के खातिर सबकुछ न्योछावर करने का दम भरने वाले,
खुद का भरोसा बेच दे सरे राह,यूं भी बावफा होते है लोग!

दिल और आँख के रिश्तों की, अजब दास्तां हमने भी देखी,
नजर देखे, दिल शकूं पाए,समझदार यूं भी नफ़ा होते है लोग !

Friday, May 21, 2010

कल रात को मैं कुछ लिख न पाया !




मुझको मेरी रहमदिली ने सताया,
कल रात को मैं कुछ लिख न पाया !
धीमी- आहिस्ता शाम ढल रही थी,
मेरे सामने इक शमा जल रही थी !

तभी फिर वहाँ एक परवाना आया,
कल रात को मैं कुछ लिख न पाया !

पतंगा कोई एक गीत गा रहा था,
शम्मा के इर्द-गिर्द मंडरा रहा था !
प्यार के जुनून में था वह मनचला,
जब तक जली शमा वो भी जला !
'
'
कभी साथ ऐसा किसी ने निभाया,
कल रात को मैं कुछ लिख न पाया !

बदन अपना वो लौ में लुटाता रहा,
हालत उसकी देख मैं छटपटाता रहा !
जिन्दगी से जाने क्यों रुष्ट था वो,
इरादे का पक्का बड़ा दुष्ट था वो !

दृड़-प्रण वो उसका मुझे बहुत भाया,
कल रात को मैं कुछ लिख न पाया !!

Wednesday, May 19, 2010

स्पष्ठीकरण !

इर्द-गिर्द सदा ही घूम पाता, मैंने तो
तुमसे वो धूरी चाही थी, दूरी नहीं,
दिल की बात हम हक़ से कह जाते,
वो सहभागिता चाही थी, मजबूरी नहीं !

मेरे दिल में रखने की आदत बुरी है,
हर ख्वाब दिल के कोने में सजाता हूँ,
इजहार-ए-इश्क पलकें कर लेती है ,
हर बात लबों पे आये, ये जरूरी नहीं !

अक्सर ही ख्वाब तुम्हारे सजाने को,
हरदम आँखे चुराता हूँ रातों को नींद से,
बनाई ख़्वाबों ने जब भी तस्वीर तेरी,
पहुंचाई मुकाम पर है, छोडी अधूरी नहीं !

दिल की दीवारों पर टंगी तेरी तस्वीर में ,
प्रेम की कुंची से इन्द्रधनुषी रंग बुनता हूँ,
हसरते यों तो बहुत रखे था दिल में पाले,
न जाने क्यों ये तमन्नायें होती पूरी नही !

Monday, May 17, 2010

सड़क !


आड़ी-तिरछी ,
टेडी-मेडी,
कहीं चिकनी,
कहीं कड़क,
सुनशान
पहाडी सड़क,
यों समेटे है खूबसूरती
वह भी शुद्ध सब,
दीखने में मगर
एकदम खूसट सी
गंवार, बेअदब,
रास्तों का मंजर और
खुशनुमा पलों का प्राकृतिक सौन्दर्य ,
पथिक को भाता है,
मगर
कोप- इजहार सभी को डराता है!
पथिक का मन रखने को,
झूठ भी नहीं बोल पाती,
और सीधे ही
सतर्कता का संकेत लगाती,
उसे तो
बनावटी बनना ही नहीं आता है !!


दूसरी तरफ
लिए ढेरों तड़क-भड़क,
वो मैदानी सड़क,
खूब चौड़ी और
बड़ी-बड़ी,
अनेकानेक
सौन्दर्य सुधार के
लेप से दबी पडी,
दीखने में एकदम
सीधी लगती है, मानो
कोई सी उलझनों में
वो ना घिरी हो,
एकदम चिकनी सपाट,
ऐसी कि हया भी
फिसलकर कहीं,
किसी गटर में जा गिरी हो,
मुस्कुराकर स्वागत करती
हर पथिक का,
उसकी हर इक अदा
यों तो बनावटी है,
मगर लगती खरी है,
राही को तनिक अहसास
नहीं होने पाता !
जिस राह पर वो चल रहा,
आगे वो राह
इसकदर काँटों भरी है,
कि चलना बेहद कठिन हो जाता!!


नोट: छवि गुगुल से साभार !

Saturday, May 15, 2010

अदभुत !

दर्द इस दिल को जमीं दे रही है,
संताप सारा आसमान दे रहा है!
पलकों में सुलगते नफरतों के शोले
यादों में तपता जहान दे रहा है !!

वो चले गए हमसे दामन छुड़ाकर,
हमारे दिल के फेल होने के डर से !
इक सब्र है जो हमसफ़र बनकर
संग हरइक घड़ी इम्तहान दे रहा है !!

जो सच था वही तो हम कह गए,
मुख पर कहने की आदत बुरी है!
अब मान-हानि के दावे की धमकी
हमको हर इक बेईमान दे रहा है!!

अनजाने से क्यों बने फिर रहे वो,
हवाओं के रुख पर जान लेने वाले!
है कोई इसका सज्ञान लेने वाला कि
क्यों एक निर्दोष जान दे रहा है !!

दुष्टता-क्लिष्टता, धृष्टता-निकृष्टता से,
अब पापों के सारे घड़े भर गए है!
जिसके लिए मौत मुह खोले खडी है ,
वही जीने का हमको ज्ञान दे रहा है !!

ब्लॉगरों ने तो लगता है पी ली भांग है !

ब्लॉगरों ने तो लगता है पी ली भांग है ,
कुछ ठीक नहीं चल रहा सब उटपटांग है!
निकले तो हिंदी की दुर्दशा सुधारने को थे,
और खीच रहे बस एक-दूजे की टांग है!!

लिखने का मकसद क्या सिर्फ वोट है?
लगता है कि हिंदी में ही कही खोट है!
वरना क्यों हर एक साहित्य सेवक
बन गया आज मानसिक विकलांग है!!

अपनों से ही अगर हम कलेश लेंगे ,
फिर दूसरों को क्या ख़ाक सन्देश देंगे !
मिलजुलकर हिन्दी विकास पर ध्यान,
यही आज हम सब से वक्त की मांग है!!

ब्लॉगरों ने तो लगता है पी ली भांग है ,
कुछ ठीक नहीं चल रहा सब उटपटांग है!
निकले तो हिंदी की दुर्दशा सुधारने को थे,
और खीच रहे बस एक-दूजे की टांग है !!

Tuesday, May 11, 2010

अभी तुम्हे तो बहुत दूर तक चलना है !

आज उदित सूरज है हर हाल में तुम्हे जलना है !
कल सांझ चौखट पे दस्तक देगी, तुम्हे ढलना है !!

ये सच है कि पहाड़ सी जिन्दगी जीना आसां नहीं !
फिर भी पहाड़ बनके क्षण-क्षण हिम सा गलना है !!

वातावरण से छीन के कोई ले गया है खुसबूओ को !
तुम्हे चट्टान बनके उन हवाओं का रुख बदलना है !!

भूल गए, माँ ने तुम्हे शेरनी का सा दूध पिलाया था !
तुम्हे सिखाया किसने, तुम्हारा काम हाथ मलना है !!

थककर रोक ले कहीं पर कदम ये मुमकिन नहीं !
'गोदियाल' अभी तुम्हे तो बहुत दूर तक चलना है !!

Monday, May 10, 2010

इस बार मेरी माँ ने ख़त नहीं भेजा गाँव से !

कल मदर्स डे के सुअवसर पर मैंने उस बाबत कुछ नहीं लिखा, क्योंकि मुझे अपनी माँ से एक शिकायत है कि उसने मुझे घडियाली आंसू बहाना नहीं सिखाया ! पता नहीं क्यों ? एक दूसरी वजह भी थी , जिसे यहाँ बयाँकर रहा हूँ इन चंद पंक्तियों में ;

इस बार, इस दिन पर
सैर सपाटे नहीं गया, मदर्स डे की नाव से !
अबके यूँ भी मेरी माँ ने
इस अवसर पर ख़त नहीं भेजा गाँव से !!
पिछली जो चिट्ठी आई थी,
लिख भेजा था उसने अपना दुखड़ा !
यह भी एक वजह रही थी कि
इस मदर्स डे पर रहा उखडा- उखडा !!
अश्रु ज्योति मोतियाबिंद खा गई,
बूढ़ी काया लाचार हो गई पाँव से !
अबके यूँ भी मेरी माँ ने
इस अवसर पर ख़त नहीं भेजा गाँव से !!

Saturday, May 8, 2010

निरुपमा के बहाने एक गजल !


मित्रो, व्यस्तता की वजह से आज ब्लोग-जगत पर मेरी उपस्थिति कम ही रही, मगर मैं समझता हू कि अभी भी यहां इस ब्लोग जगत पर पत्रकार निरुपमा की असामयिक और दर्दनाक मौत से समबन्धित चर्चाओं का बाजार काफ़ी गरम है। जैसा कि मैने कुछ ब्लोग मित्रों के ब्लोगो पर कुछ टिप्पणियों मे भी कहा और अब भी कह रहा हूं कि मीडिया के साथ-साथ अनेक ब्लोगर मित्रों ने बिना सोचे-समझे निष्कर्षो पर पहुंच इस पूरे प्रकरण को एकपक्षीय बनाकर जरुरत से ज्यादा तूल दिया। खैर, भग्वान निरुपमा की आत्मा को शान्ति प्रदान करे, यही प्रार्थना करता हूं, और इस पूरे घटना के मद्यनजर पेश है एक गजल;

त्याग कर पुरा-रीतियां, निकली नये अभियानों पर ।
बदलने लगी है दुनिया, सभ्यता के दरमियानों पर ॥

न स्वयम्बर की दरकार रही, न युवराजों की जंग ।
जंक खाती जा रही तलवारें ,पडे-पडे मयानों पर ॥

क्या पूनम, क्या अमावस, शुक्ल क्या कृष्ण पक्ष ।
सूरज ग्रहण लगा रहे है, चांद के आशियानों पर ॥

कह रहे थे लोग,माली ने खुद गुलशन उजाड डाला।
करें भी कोई ऐतवार कैसे, अपने इन सयानों पर॥

सबूत मिटा डाले उसी ने, जिस पर दारोमदार था ।
मुकदमा दर्ज हुआ भी तो, गिरगिट के बयानों पर ॥

Friday, May 7, 2010

कोई तो बताये मिलती कहाँ होगी ?

कुछ शर्म खरीदनी है,
अपने लिए भी और
अपने देशवासियों के लिए भी !

मुझे लगता है कि शरीर में
विटामिन की तरह इसकी भी
नित कमी होती जा रही,
लाख जुतियाने पे भी
ये कम्वख्त शर्म नहीं आ रही !

हर शख्स का
भ्रष्टाचार के दलदल में खिला चेहरा
यहाँ कमल जलज लगता है ,
और हवाओं का रुख भी
जरुरत से ज्यादा निर्लज्ज लगता है !

अरे भाई कही तो मिलती होगी ?
ढूंढो इसे, यह सन्देश है मेरा,
स्वदेशियों के लिए भी,
और प्रवासियों के लिए भी !

कुछ शर्म खरीदनी है,
अपने लिए भी और
अपने देशवासियों के लिए भी !!

Wednesday, May 5, 2010

वो शख्स !

वो शख्स !
जो जिन्दगी से हुआ 'बोर' है,
और पैदाइशी कामचोर है,
मेहनत करना नहीं चाहता,
भूखों मरना नहीं चाहता,
जुए-उठाईगिरी में भाग्य आजमाया,
मगर कहीं भी शकून न पाया,
अभी कल ही सड़क पर जाती
बग्गियों से गन्ना लूछ रहा रहा था,
मुझे देखा तो मुझसे से पूछ रहा था,
भाई साहब, आप सिर मत खुजाओ,
मुझे सिर्फ और सिर्फ इतना बताओ,
मेरी किस्मत में बिजनेस का योग है,
ये 'आइ वास' घरेलू है या लघु उद्योग है ?
मैंने कहा,क्या बात की है भैया !
लग जायेगी तुम्हारी भी पार नैया,
नाम भले ही इसका धोखा है ,
मगर धंधा बड़ा चोखा है ,
ये तो अब हाईप्रोफाइल पेशा बन गया,
लघु क्या ये तो वृहत उद्योग बन गया ,
फटाफट फैक्ट्री लगाओ,
फिर बिजनेस तो क्या
राजनीति में भी किस्मत आजमाओ .
इस देश की जनता के खूब मन भावोगे,
'लक' अच्छा रहा तो
किसी दिन मंत्री-संत्री भी बन जावोगे !!

तू सच क्यों बोलता है ?

एक पुरानी कविता बस यूँ ही याद आ गई , अगर आपने पहले न पढी हो थोड़ा सा लुफ्त आप भी उठाइये ;

छल-कपट है जिस जग में
अंहकार भरा हर रग-रग में !
उस जगत की सब चीजों को तू
एक ही तराजू से क्यों तोलता है ?
झूठ-फरेब भरी दुनिया में,
गोदियाल,तू सच क्यों बोलता है ?

जहां कदम-कदम पर मिथ्या धोखे
बंद हो गए सब सत्य झरोखे !
वहाँ इंसान को आज भला तू
अपने ही भाव क्यों मोलता है ?
झूठ-फरेब भरी दुनिया में,
गोदियाल, तू सच क्यों बोलता है ?

जहां निष्कलंक बन गई दीनता
है चहु दिश फैली मूल्यहीनता !
धूमिल पड़ चुके उस दर्पण में
सच्चाई को क्यों टटोलता है ?
झूठ-फरेब भरी दुनिया में, Italic
गोदियाल, तू सच क्यों बोलता है ?

सब जी रहे है यहाँ भरम में
बचा न कुछ भी धरम-करम में !
इस कलयुग के कटु-सत्य को
सरे आम क्यों खोलता है ?
झूठ-फरेब भरी दुनिया में,
गोदियाल, तू सच क्यों बोलता है ?

Sunday, May 2, 2010

पहला पैग !

जीना है तो आश जगा, दिल में इक अहसास जगा,
हर दरिया को तर सकता है, मन में यह विश्वाश जगा!

हलक उतरता जाम न हो, साकी फिर बदनाम न हो,
तृप्ति का कोई छोर नहीं है, पीना है तो प्यास जगा!

हमदर्द तेरा दिल तोड़ गया, तुझे राह अकेला छोड़ गया ,
आयेगा फिर हमराही बनके, ये तीरे-जिगर अभिलाष जगा!

दुःख देने वाला दुखी नहीं, सुख ढूढने वाला सुखी नहीं,
निराशाओं में भी आशाओं के दायरे अपने पास जगा!

पीछे छूटे का अफ़सोस न कर, किस्मत का दोष न कर,
चित-अन्धकार को रोशन कर दे, दीप वो बेहद ख़ास जगा!

Saturday, May 1, 2010

मिश्रित दूध !

बहुत बोलते सुना है
तुमको कि तुम,
ये कर दोगे, वो कर दोगे !
चलते हुए के कानों में भी,
मिश्री कि तरह जहर भर दोगे !

अपनी माँ का दूध पिया है तो
हमारे भी कान भर के दिखाओ !
ज़रा दूध का दूध और
पानी का पानी कर के दिखाओ !
ये होता कैसे है
मुझे भी सीखना है,

क्योंकि मुझे ये ख्याल आ रहा,
मेरा मिल्कमैन
आजकल
पानी बहुत मिला रहा !
मैं तो क्या
पूरी बस्ती, इसी तरह जी रही !
और साथ ही यह भी कहता है कि
भैंस, गर्मी की वजह से
नहर का पानी ज्यादा पी रही !!

Thursday, April 29, 2010

खामियाजा !

दो ही रोज तो गुजरे
जुम्मे-जुम्मे
मगर अब शायद ही
याद हो तुम्हे,
किसी बेतुकी सी बात पर
भड़ककर
उतर आये थे तुम दल-बल
सडक पर,
तुमने अपनी नाखुशी जताने को
राह चलते राहगीर को सताने को ,
लिए हाथों में ईंट, पत्थर
तुम्हारा जन-जन
कर डाला मिलकर वो
क्रूर भौंडा सा प्रदर्शन ,
तब चरम पर पहुंचा
सबक का वो आह्वाहन
शिकार हुए मंजिल को जाते
अनगिनत वाहन,
हासिल होगा क्या?
समझा न सोचना जरूरी
कर डाली अपनी वो
विनाश की हसरत पूरी,
और शायद तुमने जो
एक बडा सा पत्थर,
उठाकर उस बेगुनाह सडक के
सीने पे जडा होगा !
आज अन्धेरे मे, उसी छोर से,
किसी मासूम के कराहने की
आवाजें आ रही थी,
शायद ठोकर खाकर,वहीं कहीं
गिर पडा होगा !!
काश कि तुममे भी थोड़ी
संवेदनशीलता होती
और थोड़ा सा
तुम्हारा भी दिल दुखता !
तनिक तुम भी
महसूस कर पाते कि
तुम्हारे आक्रोश का
खामियाजा किसने भुगता !!

Wednesday, April 28, 2010

महंगाई का ग्राफ भी अब नीचे आ गया !

महलों में झूठ के वर्क से कुछ और सजावट आ गई है,
लवों पर कुछ और कुटिल शब्दों की बनावट आ गई है!

सरकार की महंगाई का ग्राफ भी अब नीचे आ गया,
क्योंकि मानवीय मूल्यों में कुछ और गिरावट आ गई है !!

बच्चो ने भूख से समझौता कर बिलखना छोड़ दिया,
मजबूरी व हालात के टूटे तटबंधों में भरावट आ गई है !

गरीब के आंसुओं ने अब आग उगलना छोड़ दिया,
क्योंकि आँखों की नमी में लहू की तरावट आ गई है !!

अब प्यार-प्रेम के अभिनय सभी दिखावटी बन गए,
क्योंकि सेवाभाव और सादगी में भी दिखावट आ गई है!

अस्पतालों से निकल मरीज भी अब मिलावटी हो गए,
क्योंकि बोतलों से चढ़े खून में भी मिलावट आ गई है!!

Sunday, April 25, 2010

इस देश में इतने गद्दार क्यों है !

यहाँ लुच्चे-लफंगों की भरमार क्यों है,
मेरे इस देश में इतने गद्दार क्यों है !


जिसे देखो वो ढूढता है दवा मर्ज की ,
कोई ये न पूछे इतने बीमार क्यों है !

पृथ्वीराज आते यहाँ कंजूसी बरतकर,
मगर ये जैचंद आते हर बार क्यों है !

मगरमच्छ तो हाथी का मल खा गए,
होती परिंदे की बीट पर तकरार क्यों है !

तलवे चाटना परदेशी के पेशा जिनका,
वो ही बताते अपने को खुद्दार क्यों है !

आशाओं-उम्मीदों पे जो खरी न उतरे,
ताजो-तख़्त पे बैठी वो सरकार क्यों है !

Friday, April 23, 2010

ये दिल्ली वाले कम लेते है !

तू मेरी ऐ गल सुन कुडिये,
ये इश्क के बदले गम देते है,
ओये तू अब बस कर मुंडिये ,
ये दिल्ली वाले कम लेते है !

आँखों में दौलत का नशा है,
दिलों में इनकी जलन होती है,
बात करेंगे दुष्ट-दमन की
करनी आत्म-दलन होती है !

कदम डगमगाते घर से बाहर,
घर के अन्दर थम लेते है,
ओये तू अब बस कर मुंडिये ,
ये दिल्ली वाले कम लेते है !

आग लगाते घर दूजे के,
अपने घर अग्नि-शमन होती है,
वर्जना नहीं रंग-ढंग अपना ,
बंदिश कुतिया के चाल-चलन होती है !

यकीं न करते अपनों पर,
गैरों पे भरोसे जम लेते है,
ओये तू अब बस कर मुंडिये ,
ये दिल्ली वाले कम लेते है !

बाणी-भाव अशुद्ध नीरसता का,
शब्द-कुटिलता सघन होती है,
ईमान लुडकता वैंगन की तरह,
जुबां में भी फिसलन होती है !

रुतवे की धौंस के मारे बच्चे,
माँ-बाप के दम पर दम लेते है,
ओये तू अब बस कर मुंडिये ,
ये दिल्ली वाले कम लेते है !

मुख प्रसन्नचित प्रसाधन से,
अवसाद की थैली मन होती है,
देख करे क्या भाव प्रकट उसे ,
हर पल यह उलझन होती है !

संपर्क न कोई पास-पड़ोस से,
अपने-आप में रम लेते है,
ओये तू अब बस कर मुंडिये ,
ये दिल्ली वाले कम लेते है !

Tuesday, April 20, 2010

ऐ वक्त ! तू इतना कमवख्त क्यों है !

मन-पांखी हो रहा अशक्त क्यों है,
ऐ वक्त ! तू इतना कमवख्त क्यों है !

खुद कहे, हर दम मेरे साथ चल,
राहे-सफ़र करता फिर विभक्त क्यों है !

डगमगाने लगी कश्ती मझधार में ,
लहरों का साहिल पे भरोसा सख्त क्यों है !

फरेब की जमीं पर झूठ की पौधे देख,
फुसफुसाता ये चिनार का दरख़्त क्यों है !

शहंशाहों का घमंड में चूर होकर,
ताज उछलते देखा,उछलता तख़्त क्यों है !

Monday, April 19, 2010

एक नालायक पुत्र की पिता को सलाह !


अपनों में ढूंढो,
बेगानों में ढूंढो,
चमन में ढूंढो,
वीरानो में ढूंढो,
पहाड़ों में ढूंढो,
मैदानों में ढूढो,
फ्लैटों में ढूंढो,
मकानों में ढूंढो,
शमाओ में ढूंढो,
परवानो में ढूंढो,
आशिकों में ढूंढो,
दीवानों में ढूंढो,
इस दौर में ढूंढो,
जमानों में ढूंढो,
मगर मेरे बाप !
इस तरह तुम
हाथ पर हाथ
धरे मत बैठो,
ये सदा मेरी
अंतरात्मा से
आ रही है !
क्योंकि,
तुम्हारे बेटे की
शादी की उम्र,
हाथ से निकले
जा रही है !!

Friday, April 16, 2010

निट्ठले व खडूस सारे कामकाजी बन गए है!


मरकर बहतर हूरों व जन्नत पाने की चाह में,
जीते जी दोजख जाने को राजी बन गए है।
सुना है कि बेनमाजी भी नमाजी बन गए है,
निट्ठले व खडूस सारे कामकाजी बन गए है।।

अपना खौफनाक असली चेहरा छुपाने को,
दाड़ी रखकर मिंयाँ घोटा हाजी बन गए है ।
अदाई की रस्म खुद तो निभानी आती नहीं,
और जनाव इस शहर के काजी बन गए है।।

यों तो लोगो को सिखाते फिर रहे हैं कि
ख़ुदा नाफरमान की हिमायत नहीं करता।
पर जब खुद फरमान बरदारी की बात आई,
शराफत को त्याग, दगाबाजी बन गए है।।

भोग-स्वार्थ के लिए आप तो रूदिवादिता व
असामाजिकता के दल-दल में धंसे रहते है।
हक़ की बात पर उनके लिए औरतों के
मुकाम सियासी और समाजी बन गए है ।।

धर्म के नाम पर लोगो को गुमराह करके ,
रंक भी आजकल खुद ही शाहजी बन गए है ।
अपने स्वार्थ हेतु कलयुगी पंडत-मुल्लों के धंधे,
झूठ बोलना और जालसाजी बन गए है।।

Wednesday, April 14, 2010

हमें ऐसा न कोई तट मिला

आशिकी जिस दर से की थी,
वहाँ बेनामियों का पनघट मिला,
दोस्ती इक समंदर से की थी,

मगर सूनामियों का झंझट मिला !

खातिर नाम के अपने उम्रभर,
हम हरगिज नहीं भागे कहीं,
पर इक नाम जब ओंठो ने पुकारा,

बदनामियों का जमघट मिला !

पाने को हम भटकते रह गए,
इक झलक हुश्न-ऐ-यार की,
जिस द्वार को भी कान हम दिए,

नाकामियों का खट-खट मिला !

लोगो से सुनी हमने भी थी,
एक मजबूर के बिकने की खबर,
मगर हमें किसी राह भी,

नीलामियों का लाग ना लपट मिला !

भावनाओं के सागर में बहते-बहते,
पहुँच गए न जाने हम कहाँ,
ठौर कर लेते पलभर किसी छोर पे,

हमको ऐसा न कोई तट मिला !

मित्रों, क्षमा चाहता हूँ कि अत्यधिक व्यस्तता के कारण ब्लॉग को समय नहीं दे पा रहा, आज ब्लॉग जगत पर कुछ लेखो के आगे मुहतोड़ टिपण्णी देने का भी मन किया था, मगर समय .....!

Tuesday, April 13, 2010

एवरी डॉग हैज इट्स डे !

आज लिखने का कतई मूड नहीं है, एक अपनी पुरानी कविता दोबारा पोस्ट कर रहा हूँ , उम्मीद करता हूँ कि आप लोगो को पसंद आयेगी;

इक दिन वो भी दिन आयेगा,
जब मेरी भी दाल गलेगी दिल्ली में !
'साडे ली ते तुसी ही ग्रेट हो मौन जी,
साड्डी त्वाडे नाल गलेगी दिल्ली में !!

ईर्ष्य न मुझको कुछ भी तुमसे,
तुमने भी अपनी खूब गलाई यहाँ !
मगर जब मेरी गलनी चालू होगी ,
तो सालो-साल गलेगी दिल्ली में !!

ऐसे लूच्चे-लफंगे यहाँ गला रहे है,
कैसे-कैसे गुंडे-मवाली चला रहे है !
मैं तो इनसे फिर भी बेहतर हूँ,
मेरी हर हाल गलेगी दिल्ली में !!

अपने दम पर मैं लड़ता आया हूँ,
कदम-कदम बढ़ता आया हूँ !
तुम मैडम की बाणी में कहते हो ,
मेरी वाचाल गलेगी दिल्ली में !!

गरीब की न फिर ऐसी गत होगी,
हर बच्चे के सिर छत होगी !
पेट-फिकर में तब और न कोई माँ,
ऐसे बदहाल गलेगी दिल्ली में !!

Monday, April 12, 2010

टेंशन मत लो सर जी....!

कल यानी रविवार का यह वाकया है! बंद गेट के बाहर कुछ लोग खड़े जोर-जोर से बाते कर रहे थे , और गेट के अन्दर मौजूद सिक्योरिटी गार्ड से उलझ रहे थे! लोग मांग कर रहे थे कि वह उन्हें अन्दर जाने देने के लिए गेट खोले ! गार्ड विनम्रता से बस एक ही वाक्य कहे जा रहा था कि सहाब ये गेट बंद है , चाभी अन्दर ऑफिस में है, अत: यह गेट नहीं खुल सकता, आप गेट नंबर दो से अन्दर जा सकते है! अपनी बौसियत दिखाते-दिखाते कुछ लोग अपनी औकात में उतर आये थे और गार्ड को एक ने बहन की गाली दे दी ! बस फिर क्या था, गार्ड भी अपना संतुलन खो बैठा और पैर से जूता निकाल लिया ! फिर एक सज्जन ने जो कुछ उस गार्ड को समझाया उसे कविता में वयाँ कर रहा हूँ ;

लगती पग-पग यहाँ दिल को ठेस है,
टेंशन मत लो सरजी, गधो का देश है !
एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दो,
ये भी मुमकिन न हो तो रूइं डाल दो !!
बहस करके क्यों फिजूल पालता कलेश है,
टेंशन मत लो सरजी, गधो का देश है !
किस-किस की सुनोगे और जबाब दोगे,
जिसे देखो वही ढेंचू-ढेंचू कर रहा है !
अनाज गोदामों में सड़कर बेकार हो गया,
इंसान कुत्ते की मौत भूख से मर रहा है !!
लूटता यहाँ से है, संभालता उसे विदेश है,
टेंशन मत लो सरजी, गधो का देश है !

और चलते-चलते एक कार्टून ;


बस एक आखिरी सवाल सोएब जी, क्या इस निकाह में
शरीक होने के लिए आपकी बड़ी बहन, मेरा मतलब
आपकी महाआपा आयशा जी भी आ रही है ?

Wednesday, April 7, 2010

ख़्वाबों के सुनहरे तिलिस्म टूटे है !

सड़क वीरां क्यों लगती है, उखड़े-उखड़े से खूंटे है,
आसमां को तकते नजर पूछे, ये बादल क्यों रूठे है!

डरी सी शक्ल बताती है, महीन कांच के टुकडो की
क्रोध में सुरीले कंठ से, कुछ कड़े अल्फाज फूटे है!

रसोई के सब बिखरे बर्तन, आहते में पडा चाक-बेलन,
उन्हें देखकर कौन कहेगा कि ये बेजुबाँ सब झूठे है !

अजीजो को फोन कर दे दी, मेरे मरने की खबर झूठी,
आपके तो बेरुखी-तकरार के, अंदाज ही अनूठे है!

उस 'अंधड़' को खुद तुमने, झिंझोड़ कर जगाया था,
मलाल यह है कि ख़्वाबों के सुनहरे तिलिस्म टूटे है !!

Sunday, April 4, 2010

जनगणना मे यह जानकारी भी ली जानी चाहिये थी…

जैसा कि सभी जानते है कि देश में जनगणना का काम एक अप्रैल से शुरु हो चुका है। इस बार इस जनगणना मे भरे जाने वाले फ़ार्म मे एक आम नागरिक के जीवन से समबन्धित बहुत सी बातों की जानकारी लेने का प्रयासकिया जा रहा है। साथ ही मगर मेरा यह भी मानना था कि क्या ही अच्छा होता कि सरकार यह भी इस जन गणना के माध्यम से जानने का प्रयास करती कि दूसरों को बडे-बडे उपदेश देने वाले हमारे इन भ्रष्ठ प्रजाति के प्राणि की मलीन बस्तियों से देश रक्षा का जज्बा लेकर राजनीतिक नेतावों के कितने बच्चे पिछले दस सालों मे सेना मे गए?



मातृ-रुंधन
चाहे गुहार समझो मेरी,
या समझ लो इसे दृढ ऐलान,
दूंगी अब एक भी सपूत अपना
तुम्हें करने को देश पर बलिदान

एक तरफ़ तो सेना मे
अफ़सरों की कमी का रोना रो रहे,
दूसरी तरफ़ उन्हे घटिया हथियार और
निरन्तर मिग दुर्घटनाओं मे खो रहे।

देश मे व्याप्त लूट-भ्रष्ठाचारी का
कर दोगे जब तक निदान ,
दूंगी तब तक एक भी सपूत अपना
तुम्हें करने को देश पर बलिदान

अपना तो तुम्हारा कुटिल,कपटी, कपूत
नित हर रहा द्रोपदी के चीर को,
और पेंशन को भी मोह्ताज कर दिया,
देश रक्षा करने वाले वीर को

सीख लो जब तक करना
सह्रदय से वीरों का सम्मान,
मैं दूंगी एक भी सपूत अपना
करने को तुम्हें देश पर बलिदान


Friday, April 2, 2010

गुड फ्राई डे !

आज इस सुअवसर पर दो आड़ी तिरछी कविता की लाइने लोर्ड जीसस के नाम ;

I'm a Hindu,
but still I think
I'm not much different
from the people of your community.

Yes Jesus, I respect you
and love to read
your autobiography because it is
full of life and sacrifice for humanity.


I know, on this day
people commemorate your suffering,
and death on the cross,
I wish you a Blessed Good Friday!

But I think,
it's gonna be a bad day for me,
because in Delhi,
it's observed as DRY day. :)

Thursday, April 1, 2010

तकरार-ए-अप्रैल फूल !


कली ने कांटे से कहा तू फूल है,
कांटे ने कहा यह तेरी भूल है !
लाख मगर कोई कोशिश कर ले,
वो फूल नहीं बन सकता जो शूल है !!

फूल तो जाकर कलियाँ बनती है,
भंवरा मंडराए इसलिए बन-ठनती है !
प्रहरी बनके रहना कांटे का असूल है,
वो फूल नहीं बन सकता जो शूल है !!

फूलों की किस्मत में महकना लिखा है,
हमारी किस्मत में बस तकना लिखा है !
जो तुम्हे छूने लगे उसे डसना ही उसूल है,
वो फूल नहीं बन सकता जो शूल है !!

कली बोली, तेरे मुह लगना ही मेरी भूल है,
यह नहीं जानता कि आज अप्रैल फूल है !
खैर, तुझ से झख मारना ही फिजूल है,
तू फूल नहीं बन सकता, तू तो शूल है !!

Tuesday, March 30, 2010

सरिस मन डोला !




छवि गुगुल से साभार



दिन तन्हा तो गुजर गया,
सूनी सी रात मगर बाकी है।

मयखाना ठिकाना,
मय गम की दवा है
और हमसफ़र साकी है ।

दो पैग के बाद
परवाना सोचता है कि
उसने तो सदा ही जिन्दगी
चरागों की रोशनी पे फिदा की है।

ऐ काश ! कि ये 'अर्थआवर' भी
सदा के लिए ही हो जाता।
अपना भी बड़े दिनों से चल रहा
मंदी का दौर ख़त्म हो जाता।

मुहावरे ही मुहावरे !


तू डाल-डाल,मैं पात-पात,नहले पे दहले ठन गए,
जबसे यहाँ कुछ अपने मुह मिंया मिट्ठू बन गए।

ताव मे आकर हमने भी कुछ तरकस के तीर दागे,
बडी-बडी छोडने वाले, सर पर पैर रखकर भागे

अक्ल पे पत्थर पड गये क्या, आग मे घी मत डालो,
दूसरों पर पत्थर फेकना छोडो, अपना घर संभालो

समझदार नहीं धर्म की आंच पर रोटियाँ सेका करते,
कांच के घरों में रहने वाले, पत्थर नहीं फेंका करते।

हमेशा एक ही लकडी से हांकना ठीक सचमुच नहीं ,
मिंया, मुल्ले की दौड मस्जिद तक बाकी कुछ नहीं ।

आंखों मे धूल झोंक,खुद को तीस मारखा बताते हो,
चोर-चोर मौसेरे भाई हो,खिचडी अगल पकाते हो।

अपुन तो सौ सुनार की, एक लोहार की पे चलते है,
चिराग तले अन्धेरा है आपके, काहे फालतू में जलते है।

हम सब जानते है कि दूर के ढोल सुहाने होते है,
नहीं समझदार लोग बहती गंगा में हाथ धोते है।

Monday, March 29, 2010

आस्था से अरे, यह तेरा प्यार कैसा !

कृत्यों मे संदिग्धता हो, फिर करे कोई ऐतबार कैसा ।
शालीनता न दिखे स्वभाव मे,यह तेरा व्यव्हार कैसा ।।

पाले रखे है नित जिगर मे, अंत्य ख्याल प्रतिघात के ।
फ़रमाबरदार अल्लाह का बन, आस्था से प्यार कैसा ॥

निकले नही जुबां से कभी, सरस स्नेह के दो लफ़्ज भी ।
रिपु बनाके अग्रज को, जेहाद मुक्ति का आधार कैसा ॥

भोग के लोभ मे लबे-राह, बना लिया इक आशियाना ।
वसीला बना अशक्त-ए-पर्दानशीं, सर्ग का करार कैसा ॥

खुदा के फ़जल से बना जब, कृति अनवरत संसार की ।
पाने को अज्ञेय जन्नत हो रहा, इस कदर बेकरार कैसा ॥

एक ही माटी से ढले जब उसने सभी एक ही चाक पर ।
कहे, तोड डाल काफ़िर घडों को,अरे यह कुम्हार कैसा ॥

गैर-मजहब की भी स्तुति करना सीख ले, निन्दा नही ।
इन्सानियत ईश धर्म है, फिर यह तेरा अहंकार कैसा ॥

- अंत्य = तुच्छ -फ़रमाबरदार=आज्ञाकारी
- लबे-राह= सड्क किनारे -वसीला= जरिया,
- अग्रज= बडा भाई - सर्ग= सृष्टि, रिपु= शत्रु

Thursday, March 25, 2010

कभी-कभी मेरे दिल में ....

आजादी की लड़ाई से अब तक, इन अपने सेकुलर नेताओं की शक्ले और करतूते देखते-देखते तो आप भी पक चुके होंगे, मगर क्या कभी आपने भी ऐसा सोचा कि अगर सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर जैसे अपने अमर शहीद १९४७ तक ज़िंदा रहते तो क्या पाकिस्तान बन जाता ? या फिर बन भी जाता तो क्या ऐसा पाकिस्तान बनता जो हमने देखा/ देख रहे है ? खैर, अगर आप नहीं सोचते हो तो सोचना इस बारे में भी, कभी वक्त मिले तो !

अब और न बिगड़ी तकदीर कोस,
और न दिल को बेकरार कर !
रात ढले न ढले मगर तू,
इक सुहानी भोर का इन्तजार कर !!

अब हासिल न होगा कुछ भी यहाँ,
सच्चाइयों से मुख मोड़ कर !
हरवक्त दर्द-ए-गम का पिटारा खोलकर,
दिल से इस कदर न तकरार कर !!

शाख-ए-गुल से टूटे फूल को,
यूँ न देख अचरज से आँखे फाड़कर !
अब उदासियों के साज तज दे,
और वसंती नगमा-ए-नौबहार कर !!

खुद की बदनसीबी के लिए,
मत इल्जाम दे हाथ की लकीर को !
बाजुओ पर रख भरोसा,
डग बढ़ा और गुलशन को गुलजार कर !!

Wednesday, March 24, 2010

कूड़ा-करकट !

सर्वप्रथम सभी मित्रों को रामनवमी की हार्दिक शुभकामनाये !

तजुर्बों से ही दुनिया सीखती है अक्सर,
बड़े इत्मिनान से उन्होंने हमें बताई ये बात !
और हम थे कि हमें यह भी मालूम न था कि
रात के बाद दिन निकलता है या दिन के बाद रात !!

सितम बहुत सहे है हमने इस जमाने के,
ख्वाब देखते है अब तो चाँद के पार जाने के !
इसरो, नासा वालों यान फटाफट बनाओ ,
ये बेदर्द जहां अब और रहने के काबिल न रहा !!

और अंत में ये पंक्तियाँ आजकल ब्लॉग-जगत से गुम, महफूज भाई की खिदमत में ;

थी नहीं महफूज मुहब्बत उनकी इस शहर में,
अजब जुल्मो-सितम उन्होंने जमाने के सहे है !
इसलिए छोड़कर सब ब्लॉग्गिंग- स्लोग्गिंग, जनाव
आजकल तकदीर बनाने को उनके शहर गए है !!

Tuesday, March 23, 2010

आत्म-उचाव !

स्वप्न सुन्दरी,
मै अपने इस बदतमीज,

नादां दिल की

हरकतों पर शर्मशार हूं ।

और

मेरी जुबां पे आये

दर्द को सुनकर,

छलक आये उन आंसुओं को,

पलकों मे ही छुपा लेने पर,

तुम्हारे इन

नयनों का शुक्रगुजार हूं ॥



मै जानता हूं कि

किस तरह,

वक्त की नजाकत को समझ,

बडी चतुराई से,

इन झील सी गहरी आँखों ने

आंसुऒं को

पलको मे छुपाये रख छोडा था ।

वरना तो वे,

सब बहा ले जाते संग अपने,

पुतलियों का काजल,

तुम्हारे वेशकीमती उन

गालों के रेगिस्तान से होकर,

जिन पर

क्षणभर पहले ही तुमने,

वो महंगा कौस्मैटिक लपोडा था ॥



सोचता हूं,

काश कि

तुम्हारे नयनों की तरह,

मेरा ये नादां दिल भी

समझदार होता ।

आते चाहे कितने ही

आंधी-तूफ़ान,

जज्बातों के अंधड,

मगर यह अपना

आपा न खोता ॥




हे बापू !
माँ ने तो पूत बस दो ही पैदा किये थे,
एक नमकहराम दूजा हरामखोर निकला।
एक ने आबरू उसकी बाजार बेची,
दूसरा अपने ही घर मे चोर निकला ॥

जयचन्द, मुहम्मद गौरी संग मिलकर,
कातिल मासुमों का पुरजोर निकला।
शकुनी राजनीति की चाल चलकर,
नेता, खल-नेता, वक्ता मुह्जोर निकला॥

आवरण हरीश चन्द्र का डालकर,
अन्यायी , अविश्वासी घनघोर निकला।
माँ ने तो पूत बस दो ही पैदा किये थे,
एक नमकहराम दूजा हरामखोर निकला।।

Sunday, March 21, 2010

साठ साल मे अक्ल न आई.....!

संशोधित:

साठ साल मे अक्ल न आई,अपने इन भिखमंगों को ।
चुन-चुनकर संसद भेज दिया , लुच्चे और लफ़ंगो को ॥

चमन उजाडने वाला ही, बन बैठा बाग का माली है ।
दुराचार के फूल खिले हैं और बगिया मे बदहाली है ॥

जन-प्रतिनिधित्व के नामपर यह सारा गडबड झाला है ।
जन पैंसे को तरस रहे, कंठ इनके नोटो की माला है ॥

धन-कुबेर की चाबी सौंप दी, राह के भूखे-नंगो को ।
साठ साल मे अक्ल न आई,अपने इन भिखमंगों को ॥

सडकों की बदहाली से, लोग तो जाम मे फंसे हुए है ।
महलों के सुख भोग रहे ये, हाथों मे जाम ठसे हुए है ॥

लूट-खसौट उद्देश्य रह गया, आज यहां हर नेता का।
तथ्यों को झुठलाना रह गया, काम कानून बेता का ॥

जाति-समाज मे हवा दे रहे, ये बे-फजूल के पंगो को ।
साठ साल मे अक्ल न आई,अपने इन भिखमंगों को ॥


कत्ल-हिंसा,व्यभि-बलात्कार, इनका यह सब लेखा है।
आजादी के इस कालखंड मे, देश ने क्या नही देखा है ।।

ज्ञान जग सारे को देने वाला, देश ज्ञान को तरस रहा ।
मक्कार पुजारी, मुल्ला,पादरी, ज्ञानी बनके बरस रहा ॥

ठेकेदार धर्म के बन भडकाते, जाति-धर्म के दंगो को ।
साठ साल मे अक्ल न आई,अपने इन भिखमंगों को ॥

धर्म-निरपेक्षता की माला जपते, तुष्ठिकरण भी करते है।
राष्ट्र-हितों को दर किनार कर, वोट-बैंक पर मरते है ॥

भ्रष्टाचार के साधन ढूढते, नित यहां पर नये-नये ।
चाटुकारिता करते-करते, अपना धर्म भी भूल गये॥

पथ-भ्रष्ठ कर युवा शक्ति को, पैदा कर रहे हुड-दंगो को।
साठ साल मे अक्ल न आई, देश के इन भिखमंगों को ॥

Saturday, March 20, 2010

खूब मजे लूट रहा, घर के भी, घाट के भी !

छवि गुगूल से साभार !

सुना था,
जब-जब अराजकता के बादल घिरते है,
यहाँ, आवारा हर कुत्ते के दिन फिरते है !

कमोबेश,
कुछ ऐसा ही परिस्थिति अबकी भी बार है,
दूषण - प्रदूषण से हुआ हर तंत्र बीमार है !

क्या कहने,
अब तो धोबी के कुत्ते के ठाठ-बाट के भी,
खूब मजे लूट रहा, घर के भी, घाट के भी !!

उसकी तो,
बस नजर, अपने बाहुल्य बढ़ाई में है,
पांचों उँगलियाँ घी में,सिर कढाई में है !

हर तरफ,
जिधर देखो, अराजकता ही नजर आती है,
रोटी की जगह टॉमी, बटर-ब्रेड खाती है !

ऐसी तो,
बादशाहत, हरगिज देखी न सुनी थी हमने,
अवाम-ए-हिंद, कभी किसी बड़े लाट के भी!
क्या कहने,
अब तो धोबी के कुत्ते के ठाठ-बाट के भी,
खूब मजे लूट रहा, घर के भी, घाट के भी !!

Friday, March 19, 2010

मिंया, अपनी तो ठीक से धुल नहीं पाते और ...

कल एक सवाल पूछा था मैंने एक ख़ास बुद्धिजीवी वर्ग से, समयाभाव के कारण आज उस पर एक यथोचित लेख न लिख सका, जिसके लिए क्षमा ! मैं उन सभी मित्रों का आभार व्यक्त करना चाहूंगा, जिन्होंने अपने महत्वपूर्ण विचार उस लेख पर टिप्पणी के रूप में रखे ! और जो कुछ आज के लेख में मैं कहना चाहता था, उसका अधिकाँश हिस्सा उन्होंने टिपण्णी के रूप में रख दिया है! जिन ख़ास सज्जनों से मैंने जबाब की उम्मीद की थी, उनमे से कुछ मिले, लेकिन यही कहूंगा कि सवाल का सीधा जबाब किसी ने नहीं दिया! हाँ, श्रीमान कैरानवी साहब का जरूर शुक्रिया अदा करूंगा कि उन्होंने पहले तो गोलमाल ही जबाब दिया था, मगर मेरे पुनः अनुरोध पर उन्होंने स्टॉक मार्केट के ऊपर अपनी बेबाक राय यह रखी कि शेयर ट्रेडिंग इस्लाम के खिलाफ है! मुझे मालूम था कि वे लोग जो दूसरे के धर्म में न सिर्फ खोट निकालते फिरते है, बल्कि उनके लोगो के बारे में भी अपशब्द कहते है! इतना तो इस सवाल के जबाबो से अंदाजा आपको भी लग ही गया होगा कि वे इस सवाल का सीधा जबाब नहीं दे सकते, क्योंकि उन्हें मालूम है कि उनके खुद के आँचल अथवा चादर में कितने छेद है !

तो निष्कर्ष यही निकला कि अगर हमें तुम बुरा बताते हो तो तुम भी भले नहीं हो! यह मत भूलिए कि सनातन धर्म आदिकाल से हजारों वर्षों से चला आ रहा है, तो निश्चित है कि जो जितना पुराना धर्म होगा और जिसके ऐसे तथाकथित सेक्युलर अनुयायी होंगे जो तात्कालिक स्वार्थ सिद्धि के लिए खुद ही बेसिर-पैर की खामिया अपने धर्म में निकाल लेते है! तो उसमे बहुत सी मनगड़ंत बाते होंगी ही ! आपका धर्म तो महज १४०० साल ही पुराना है, उसके बाद भी खुद देख लीजिये कि कठमुल्लों ने अपनी सुविधा के हिसाब से फतवे निकाल-निकाल कर उसको मनमाफिक बना डाला है!

तर्कसंगत और समसामयिक बहस जिससे किसी का भला हो सकता है उसे करने में कोई बुराई नहीं, लेकिन सिर्फ दूसरे को नीचा दिखने के लिए गड़े मुर्दे उखाड़ने लगो तो जो ये सोचते है कि हम ही तोप है, तो उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि यहाँ उनके भी बाप बैठे है! कोई अगर चुप्पी साधे है तो किसी ख़ास वजह से ! तर्क संगत वाद-विवाद का एक उदाहरण इस तरह से दूंगा कि मैं अगर बुर्के की बात कर रहा हूँ, तो उसे गलत मंतव्य से न लेकर इस तरह लीजिये कि हाँ , अगर इस बहस से यह निष्कर्ष निकलता है कि बदलते हालात के मुताविक महिलाओ को बुर्के में रखना उचित नहीं है ! लेकिन अगर आप जबाब में हमारी माँ- बहिनों पर अश्लील आरोप और बेसिर-पैर की आदिकाल की बातें करने लगो तो वह कौन सी समझदारी ? दूसरे की भावनाओं को भड्काओगे , दूसरे ने भी चूड़ियाँ नहीं पहन रखी, कोई कब तक चुप रहेगा ? यह याद रहे कि जम्मू के सोमनाथ मंदिर, काशी मंदिर , दिल्ली और गोधरा के बाद गुजरात भी होता है! तो बेहतर यही है कि घृणा फैलाने की बजाये हम आपसी भाई-चारा बढ़ाएं , ताकि समूची मानव जाति का भला हो !


घृणा-नफरत की पौध के दाने से पले हो,
सारा जग गुणहीन है, बस, तुम ही भले हो !
मिंया, अपनी तो ठीक से धुल नहीं पाते,
और ज्ञानी बनकर दूसरों की धुलने चले हो !!

तनिक दूसरों पर पंक उछालने से पहले,
खुद की गरेवाँ में भी झांक लिया करो !
हर बात पे जिसका वास्ता देते हो तुम,
भले-मानुष कम से कम उससे तो डरो !!

जो तुम्हारी न सुने वो काफिर नजर आये,
गैर की आस्था से क्यों इस कदर जले हो!
मिंया, अपनी तो ठीक से धुल नहीं पाते,
और ज्ञानी बनकर दूसरों की धुलने चले हो !!

मुंह से निकलती भले हो अमन की बाते,
मगर कृत्य ने सदा खून-खराबा दिखाया !
कथनी और करनी में फर्क रहता तुम्हारे,
सदाचार ऐसा यह तुमको किसने सिखाया !!

जिस सांचे में प्रभु ने तमाम दुनिया ढली,
मत भूलो उसी सांचे में तुम भी ढले हो !
मिंया, अपनी तो ठीक से धुल नहीं पाते,
और ज्ञानी बनकर दूसरों की धुलने चले हो !!

Tuesday, March 16, 2010

झूठों के गले मे पडी माला, लोकतन्त्र का मुंह…

सर्व-प्रथम आप सभी को हिन्दु नव-वर्ष वि.स. २०६७ की हार्दिक शुभकामनाये! व्यथित मन इस देश मे लोकतन्त्र और संविधान की दुहाई देने वालों की घटिया हरकतों को देख क्रोधित हो उठता है। आज जहां एक तरफ़ करोडों की आवादी भुखमरी के कगार पर खडी है, कानून और व्यवस्था की स्थिति ऐसी है कि एक बेखौफ़ दुष्कर्मी जो एक युवति से दुष्कर्म की सजा काट रहा है, जेल से छूटकर आता है तो फिर उसी युवति को सरे-आम उठा कर ले जाता है। और उसके साथ मुह काला करने के बाद उसे नोऎडा की सड्कों पर फेंक देता है। क्या इसी स्वतन्त्र और सर्वप्रभुत्वसम्पन्न भारत के सपने सजोये थे हमने ? कौन इन्हे यह सब करने का दुस्साहस देता है? दलितों और पिछडों से भी पूछना चाहुंगा कि सत्ता और अधिकारों के नाम पर दिन-दोपहर सडकों पर यह भोंडा प्रदर्शन क्या दर्शाता है । सवर्णों द्वारा दलितों के दमन की शिकायत तो आप अकसर करते है, मगर जब अधिकार आपके हाथ मे आये तो आप दुरुपयोग करने से कहां चूके?अगर आपकी नजरों में यह सब सही है तो फिर सवर्ण भी कहां गलत थे ?

माया बटोरने का अजब यह कौन सा मिराक* है,
तार-तार करके रख दी लोकतंत्र की साख है ।
संविधान मुंह चिढा रहा है निर्माता-रक्षकों का,
आढ मे दमित बैठा अब ये कौन सी फिराक है ।।

यही वो भेद-भाव रहित समाज का सपना था,
क्या यही वो वसुदेव कुटुमबकम का नारा था ।
यही वो दबे-पिछडों के उत्थान की बुनियाद थी,
क्या यही स्वतन्त्रता का बस ध्येय हमारा था ॥

नैतिक्ता, मानवीय मुल्य जिनपर हमे नाज था,
कर दिया उन्हे हमने मिलकर सुपुर्द-ए-खाक है ।
माया बटोरने का अजब यह कौन सा मिराक है,
तार-तार करके रख दी लोकतंत्र की साख है ।।

अचरज होता है मुझे कभी-कभी यह सोचकर,
क्या रोशन होगी भी गली श्यामल संसार की ।
जन यू ही सदा अरण्य युग मे ही रमाये रहेंगे,
या फिर कभी खुलेगी भी सांकल बंद द्वार की ॥

जनबल, धनबल, और बाहुबल के पुरजोर पर,
मुंहजोर ने रख छोडा आज कानून को ताक है ।
माया बटोरने का अजब यह कौन सा मिराक है,
तार-तार करके रख दी लोकतंत्र की साख है ।।

• मिराक= मानसिक रोग
• सांकल बंद द्वार की= बौद्धिक चेतना

Sunday, March 14, 2010

तू हिन्द है !

निभा सकता है तू जहां तक और जबतक, बस निभाता रह,
सहिष्णुता तेरा मूल मंत्र है, दिखा सके जबतक, दिखाता रह

असुर तो हमेशा की तरह ही, पथ मे तेरे कंटक बोता रहेंगा,
फूल प्रेम के तू राह उसकी बिछा सके जबतक, बिछाता रह

बैरी को भले ही खुशियां तेरी, देख पाना हरगिज मंजूर हो,
पीडा के अश्रु पीकर भी मुस्कुरा सके जबतक, मुस्कुराता रह

मानव सभ्यता के दुश्मन भले ही, बदन तेरा लहु-लुहां कर दे,
बोझ उनकी दुष्ठता क्रुरता का उठा सके जबतक, उठाता रह

कुटिल-कायरों की अधर्म-सापेक्षता से, असल धर्म अस्तगामी है,
देह पर क्षरण के रिस्ते घावों को छुपा सके जबतक, छुपाता रह

गीत यही तेरावैष्णव जन तो तेने कहीये जै पीड पराई जाणे रे”,
हिन्द हूं, मैं हिन्द हूं,गर्व से गुनगुना सके जबतक, गुनगुनाता रह ।।

Thursday, March 11, 2010

तू क्या निकला !!

धर्म का पुण्य समझा था तुझे, तू अधर्म का पाप निकला,
मानवता का कलंक निकला, पर्यावरण का अभिशाप निकला !

हांकता है बाहुबल के जोर पर, तू यहाँ हर इक झुण्ड को,
भेड़ियों से है भय तुझे, भेड़ पर जुल्म का ताप निकला !

महापंच की चौधराहट दिखाई, निरीह प्रेमियों की राह में,
मुस्लिमों का तालिबां निकला, हिन्दुओ का खाप निकला !

सरिता, सुदूर पर्वतों से निकल,जाती है सागर से मिलन को,
उसकी भी राह रोक डाली, तू तो खाप का भी बाप निकला !

धन-ऐश्वर्य की लालसा ने, इस कदर अँधा बना के रख दिया,
भूखों के मुह का लिवाला छीनकर, गरीबी का संताप निकला !

वो अब तक खुला घूमता है, पशुओ का चारा खा गया जो,
निर्दोष मर-खप गया कारागाह में, यह तेरा इन्साफ निकला !!

Wednesday, March 10, 2010

एक सडक जो कुछ अलग सा कहती है !

कुम्भ मेला भी अपनी समाप्ति की और अग्रसर है, अपने निजी काम से फिर एक बार उस सड़क को नापा, जो दिल्ली से हरिद्वार जाती है ! पिछली यात्रा के बाद इस बार भी कुछ भी नया नहीं था ! वही अस्तव्यस्त पडी सड़क , जिस पर कभी एक कुशल ड्राइवर ४ घंटे में दिल्ली से हरिद्वार पहुचाने की गारंटी देता था , वह भी आज छः साढ़े छः में पहुँचाने के लिए कहता है कि बाबूजी, कोशिश करूंगा, वादा नहीं ! एन डी ए के शासन काल में मंजूर हुआ सड़क चौडीकरण का काम आज भी ज्यों का त्यों पडा है, कहीं चल भी रहा है तो कछुवे की चाल, शायद इस सड़क को तीब्र गति से बनाने के लिए सरकार के पास धन की कमी आड़े आ रही है ! बस सड़क पर गुजरते वक्त यही उम्मीद बंधती है कि बारह साल बाद आने वाले अगले महा-कुम्भ तक शायद कुछ सुधार हो जाए !



कुछ अलग सा कहती है

एक सडक वो,

गन्तव्य की ओर बढते हुए,

मैने देखा था

जिस सडक को,

अपने में

अनेकों भिन्नता लिए,

उदास सी,

अधेड चेहरे पर

कुछ खिन्नता लिए,

मैं एक टक, बस एक टक,

उसे ही देखे जा रहा था ।



किस तरह वह,

समेटने की कोशिश मे लगी थी

अपने फटे सीमित आंचल मे,

हर उस पैदल, साइकिल,

दुपहिया, तिपहिया,कार,

बस और ट्रक सवार को,

और तो और,

ट्रैक्टर,गन्ने से लदी बग्गीय़ों

एवं जुगाड को,

एक सचेत भारतीय मां की तरह

बस,

डूबी इसी फिक्र मे,

कि कही उसके कुनवे का

कोई लाड्ला फिसल न जाये,

गिर न जाये,

किसी गड्डे इत्यादि मे,

उसकी बेवसी,

उसके आंचल की दुर्दशा देख,

मैं मंद-मंद मुस्कुरा रहा था ॥





दिन रात लग्न से,

ढोये जाती थी उन मुसाफ़िरों को,

जो अधिकांशत:

अपने-अपने

पाप धोने जा रहे थे।

या फिर लौटते मे,

पुण्य कमाने का अह्सास लिए,

खुशी-खुशी

घर वापस आ रहे थे॥




उसकी इस बेवशी पर,

मुझे मुस्कुराता देख,

वह कुछ

तिलमिला सी गई,

और मुझसे कहने लगी,

कि हंस ले बेटा तू भी,

सुन, आज मैं तुझे बताती हूं ।

वे लोग जो

भगवान् का

नाम नहीं भजते है,

जिन पर,

मुझे सवारने की

जिम्मेदारी है,

वे कुछ धर्मनिरपेक्ष,

शायद मुझे भी

साम्प्रदायिक समझते है,

क्योंकि मेरा दुर्भाग्य

कि मै,

दिल्ली से हरिद्वार जाती हूं ॥



ऐ काश, कि मैं
भी

दिल्ली से मक्का

या फिर रोम जाती।

सुन्दर,

चौडी और सपाट

सडक क्या होती है,

फिर मैं तुम्हें बताती॥

Saturday, March 6, 2010

क्या ज़माना आ गया है !

,
क़दमों को डगमगाना आ गया है,
सच में क्या ज़माना आ गया है,
बदलते हालात संग हमें भी अब ,

हर रिश्ता निभाना आ गया है!

तेरी खुशी की खातिर हमने कर दी,

हर ख्वाइशे कुर्वान अपनी,
सूना है हमें देखकर अब गुलो को भी,

खिल-खिलाना आ गया है !!

तुमसे बिछुड़कर भी कभी,

तुम्हे भुलाना इस कदर आसाँ न था,
वक्त के सित्तम देखो कि न चाह कर भी,

हमें भुलाना आ गया है !

तुम्हे शिकायत यह थी हम से,

हम पाश्चात्य के रंग में रंग गए,
यह न भूलो, तुम्हारे प्यार के खातिर,

हमें भी शर्माना आ गया है !!

ये मत समझना सिर्फ तुम ही माहिर हो,

दिल का दर्द छुपाने में,
अब हमें भी अपने आंसुओ को,

पलकों में छुपाना आ गया है !

जो मिला था मुक्कदर से,

जिन्दगी को वह न कभी रास आया,
मुस्कुराकर तुम कर दो विदा,

क्योंकि अब मेरा ठिकाना आ गया है !!

मेरी जां तू उदास क्यों है ?

(छवि गुगूल से साभार )
ये बेरुखी तुम्हारे इतने पास क्यों है,
मुझे बता मेरी जां तू उदास क्यों है ।

पहलू मे रहे सदा हम तेरे हमदर्द बनकर,
फिर गैर की हमदर्दी इतनी खास क्यों है ।

गर आसां न था तुमको साथ मेरा निभाना,
फिर दिल को मेरे तुमसे इतनी आस क्यों है ।

कठिन है तंग-दिल सनम के दिल मे जगह पाना,
तुम मेरी हो तब भी मुझे ऐसा अह्सास क्यों है ।

बनने चले थे हम तो मधुर इक-दूजे के हमसफ़र ,
आ गई यहाँ फिर ये रिश्तों में खटास क्यों है ।

हमारी तो हर धडकन ही तुम्हारे चेहरे का नूर था,
नजरों की अडचन बना फिर ये तेरा लिबास क्यों है।

जानते हो तुम भी कि जिन्दगी बस इक जुआ है,
बीच राजा-रानी के मगर इक्के का तास क्यों है ।

Thursday, March 4, 2010

तस्सली है कुछ पल तो जी लिए !

(छवि गूगुल से साभार )
सिकवे जुबाँ पे आये जब, हम ओंठों को सी लिए ,
दिल से निकले जो अश्क थे, वो आँखों ने पी लिए!
जुल्म-ए-सितम छुपाये, न तुम्हे अपने गम दिखाए,
हर बात को सह गए, इक तेरी बात का यकीं लिए!!

खुशियों के कारवां गुजर गए, बीच राह में छोड़कर,
वो भी कहाँ तक चलते, संग अपने ऐसा बदनशीं लिए!
गले मौत भी लगा जाते, मरने के बहाने लाख थे,
गफलत में सही, तस्सली है कुछ पल तो जी लिए!!

Tuesday, March 2, 2010

हो ली !

आज प्रस्तुत है होली के पर्व की आखों देखी। मैं जब इस तरह की कवितायें लिखते वक्त अपने सबसे अच्छी श्रोता कह लो या फिर मजबूर श्रोता को सुनाता हूं, तो जबाब देने मे माहिर पत्नी जी का वाह-वाही के तौर पर दिया गया सुक्ष्म सा जबाब यह होता है कि “ख्वाब देखने मे अपने बाप का क्या जाता है ?” :)




खेल गई वो आके मेरे संग होरी,
मुहल्ले मे आई जो इक नई गोरी।
हंसमुख चेहरे पे चंचल दो नैना,
बडी नटखट लागे कमसिन छोरी॥

जल्दी से जाने कब निकट आई,
चुपके-चुपके और चोरी-चोरी।
रंग भरी पिचकारी हाथ धरी,
खुद भीगी, मुझे भी भिगोरी॥

गालों पे जब मलती गुलाल वो,
संग मेरे करके खूब जोरा-जोरी ।
मुझे लगता कुछ ऐसा था मानो,
साबुन लगाके, मुख मेरा धो री ॥

जब से गई वो मेरे संग खेलकर,
ऐसी मद-मस्त रंगीली होरी।
तब से बार-बार उसे याद कर,
तबियत भी रंगीली सी हो री ॥

’होली है’ के उसके सुरीले बोल,
यूं पडे कानों मे ज्यूं गाये लोरी।
खींच ले गई वो पल मे दिल को,
ज्यों ले जाती है पतंग को डोरी।।

Friday, February 26, 2010

नफरत दिल में बसाने से फायदा क्या !

दर्द जुबाँ पे लाने से फायदा क्या,
अश्रुओ को पलकों में छुपाने से फायदा क्या !
अब-जब धडकने बंद हो ही गई तो,
खंजर को जिगर पर चुभाने से फायदा क्या !!

ताउम्र कोशिश बहुत की संवारने की,
पर फिर भी दिल की दुनिया सजाये न सजी !
दूर कर न पाए जो गम के अँधेरे,
अब भला ऐसे चराग जलाने से फायदा क्या !!

कान भी थक जाएँ जब सुन-सुनकर,
खाली तसल्ली, झूठी कसमें और कोरे वादों को !
सुर भटक जाएँ गजल की रियाज में,
फिर नज्म बन्दे को सुनाने से फायदा क्या !!

सिकवा किसी से कोई क्या करे,
वक्त आने पर साया भी साथ छोड़ जाता है !
ज़िन्दगी में कभी साथ तो दे न सके,
अब भला ये दूरियां मिटाने से फायदा क्या !!

तलाशा तो बहुत था मगर,
रिश्ते जाकर दूरियों में कहीं ओझल हो गए !
जिन्दगी ने हमेशा छलावे दिए,
तो नफरत दिल में बसाने से फायदा क्या !!

Thursday, February 25, 2010

दासता का दंश !







(छवि HT नेट से साभार)

Chronic hunger kills 50 in Orissa district

हर बात पर गाली सजाना, और जी हजूरी कर ताली बजाना,
लम्बी दासता की बेड़ियाँ हमको, बस दो ही गुर सिखा गई।

'माय बाप' को तो छोडिये, अब 'माय माँ' भी हावी हो रही,
'माय बाप' फूट का हल लगा गया, 'माय माँ' बीज बो रही।

भेड़ो के झुण्ड को राह,अपना अनुसरण करने की दिखा गई
लम्बी दासता की बेड़ियाँ हमको, बस दो ही गुर सिखा गई।

भौंतिक सुख के आकांक्षी, रखा न ध्यान आत्मसम्मान का,
बस तालियाँ बजा-बजाकर, गीत गा रहे उनके गुणगान का।

युग दर युग गुलाम बनकर रहना किस्मत में लिखा गई,
लम्बी दासता की बेड़ियाँ हमको, बस दो ही गुर सिखा गई।

Wednesday, February 24, 2010

भूली-बिसरी !


(छवि गुगुल से साभार)

याद तो होगी तुम्हे
वो होली,
जिस पर तुमने,
अपनी मुठ्ठी में
भींचे रखे गुलाल को हौले से,
मेरे चेहरे पर मला था,
और मैं,
पानी-पानी हो चला था,
मेरा तो रंग ही उड़ गया था !
और तुम्हारे चेहरे पे
एक अनोखा सा,
मस्ती भरा रंग चढ़ गया था !!
दुनिया को तो बस,
बाते बनाने का चाहिए बहाना,
एक तरफ तुम और मैं,
एक तरफ वह मगरूर ज़माना ,
या तो तुम ख़ूबसूरत न होती
या मैं ही जवां न होता,
अभी तो बस,
लिखना ही शुरू किया था और
अधूरी पटकथा को झठ से,
रिवाजों की अंधड़ धो गई,
दिल ने चाहा बहुत,
पर मिला कुछ नहीं,
मंजिले न जाने कहाँ खो गई,
ख्वाइशे बिखरकर बंदिशों की,
आगोश में जाकर सो गई !
जिस्म जला था जब तो
साथ उसके,
दिल भी जल चुका होगा,
राख के ढेर को टटोलने से
अब क्या फायदा,ऐ दोस्त!
अब बहुत देर हो गई !!

Tuesday, February 23, 2010

होली पर एक धमकी भरी गजल !

हिम्मत बा तोहरा में त अबकी तू,
गुजर कर देख हमार गली से,
नाम हमरा मुंती ना गर,
मरवा न देत तोहरा के कौनो नक्सली से!

डराय करत रहनी जो कबो तोरा से,
समझिएगा न हमका वो मुंती,
खूब चलत है अब आपन,
पूरा आदिवासी विरादरी हमरी है सुनती !

गुलाल डालकर छेड़ना तो दूर,
अब के सूरत देख ले हमार भली से,
नाम हमरा मुंती ना गर,
मरवा न देत तोहरा के कौनो नक्सली से!

तू अब इ न समझि ,
बन्दूक चलावे के सिर्फ तोहरे के आवत बा,
ए.के. सैंतालीस चलावेके,
अपने किशनजी हमरो के सिखावत बा!

खूबे बर्जिस हम हूँ करत बानि,
पहलवान कम नाही कौनो खली से,
हिम्मत बा तोहरा में त अबकी तू,
गुजर कर देख हमार गली से !

नाम हमरा मुंती ना गर,
मरवा न देत तोहरा के कौनो नक्सली से!!


भोजपुरी नाम-मात्र की जानता हूँ, अत: भाषाई त्रुटियों के लिए अग्रिम क्षमा !

Monday, February 22, 2010

नजारा !

छवि गूगल से साभार
कभी-कभी,
घर की ऊपरी मंजिल की खिडकी से,
परदा हटाकर बाहर झांकना भी,
मन को मिश्रित अनुभूति देता है।
दो ही विकल्प सामने होते है,
या तो चक्छुओ को
अपार आनन्द मिलता है,
या फिर, कान कटु-श्रुति पाता है ॥

ऐसे ही कल रात को,
मैने भी अपने घर की
ऊपरी मंजिल की खिडकी का
परदा सरकाकर झांका था,
बाहर बडा ही खुबसूरत सा नजारा था।
पास के घर की
एकल मंजिल की छत पर,
एक चांद टहल रहा था,
और उसके ठीक ऊपर,
आसमां से टूटने को बेताब इक तारा था॥

ठीक नीचे उस घर के आगे से
गुजरती इक गली है,
और उस गली के
एक सिरे पर खडा बिजली का खम्बा,
उस पर टंगा ब्लब,
गली मे बिखेरता उजारा था।
और उस खम्बे की ओंट मे खड़े
एक चकोर ने,
छत पर टहल रहे चांद को
सजग-कातर नजरों से निहारा था ॥


चांद ने भी
कुछ बलखाते हुए,
छत की मुन्डेर से मुस्कुराकर
उसकी तरफ़ किया एक इशारा था।
यह देख,
प्रफुलित मन से चकोर ने,
विजयी अंदाज में उंगलियाँ फेरकर
अपने लम्बे केशो को सवारा था ॥

फिर अचानक,
उस खुशमिजाजनुमा
वातावरण में एक
अजीबोगरीब खामोशी सी छा गई थी।
चकोर फुदककर
कहीं उड गया,
चांद दुबककर कहीं छुप गया,
क्योकि इस बीच कहीं से,
छत पर आमावस्या आ गई थी ॥

Wednesday, February 17, 2010

1411- बाघ वनों की शान है !



(चित्र गूगल से साभार )


 बस्ती  में जंगल-राज चल रहा,
अरे तू कैसा इंसान है !
हे व्याध ! बाघ को बचा के रख,
बाघ वनों की शान है !!

आग लगा के बाघ के वन में,
बाग़ सजाता उपवन में !
ध्वस्त कर दिया घर उसका ,
विरक्ति घोल दी जीवन में !!

जैसा करोगे,  वैसा ही भरोगे ,
यह प्रकृति का विधान है !
हे व्याध ! बाघ को बचा के रख,
बाघ वनों की शान है !!

जंगल ही बाघ का गढ़ होता है,
उस गढ़ को क्यों उजाड़ रहा !
खग-मृग,वृक्ष-वनों को तवाह कर,
पर्यावरण को क्यों बिगाड़ रहा !!

'जियो, जीने दो' का अर्थ न समझा,
तू कितना नादान है !
हे व्याध ! बाघ को बचा के रख,
बाघ वनों की शान है !!

क्षणभर के निज तुच्छ लाभ हेतु,
मत उसका भक्षण कर !
हे मूर्ख ! वह तेरा शत्रु नहीं, मित्र है,
उसका तू संरक्षण कर !!

चुन-चुन कर तूने बाघ को मारा,
तू इंसान नहीं शैतान है !
हे व्याध ! बाघ को बचा के रख,
बाघ वनों की शान है !!
-गोदियाल