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Monday, November 30, 2009

ये दुनियां चलायमान है मूरख!

लीजिये झेलिये ;

इस कदर करता तू,
किस बात पर अभिमान है !
ये दुनियां चलायमान है मूरख,
ये दुनियां चलायमान है !!

यहां बीबी-बच्चे,
भाई-भतीजा, गांव-गदेरा,
जाना तय है और,
अन्तकाल मा कोई न तेरा,
फिर तुझमे किस बात का,
यों इतना गुमान है !
ये दुनियां चलायमान है मूरख,
ये दुनियां चलायमान है !!

अच्छा और बुरा ,
इन्ही दोनो मे ही तुझे कुछ करना,
यह भी तय है कि जैसा करेगा,
प्रतिफल भी है उसका भरना,
यही तो इस जगत का
सदियों पुराना विधान है !
ये दुनियां चलायमान है मूरख,
ये दुनियां चलायमान है !!

समय नही लगता यहां
पाप-पुण्य उलझने मे,
फर्क है कथनी और करने मे,
जिस ढंग से समझना चाहो
देर कहां, उसी ढंग से समझने मे,
भला करेगा तो भला होगा,
यही जीवन का सार और ज्ञान है !
ये दुनियां चलायमान है मूरख,
ये दुनियां चलायमान है !!

सत्य को पकड के रख
जरुरत से ज्यादा चिकना है यह
कब हाथ से फिसल जाये पता नही ,
इसलिये उसे जकड के रख,
यहां बर्गलाने को,
स्वार्थ की आंधियां बहुत चलती है,
इसमे जो डगमगा गया ,
वही तो तेरा ईमान है !
ये दुनियां चलायमान है मूरख,
ये दुनियां चलायमान है !!

Saturday, November 28, 2009

सांख्यिकी और संभाव्यता !



ठुमकते हुए चलते,
तुम्हारे पैरो के
तलवों की सरगम
और तुम्हारे नुपुर की
मणियों की धड़कन से,
दिल की गहराइयों में
छुपे मेरे भावो को ,
गूढ़ शब्द-रूपी काव्यता मिली है !
तुम भी मुझे प्यार करती हो
धूल साफ़ करते वक्त,
अचानक मिले इक
फूल की गणना से ,
मुझे अपनी
सांख्यिकी की किताब में
आज यह प्रबल संभाव्यता मिली है !!

Friday, November 27, 2009

कसाब की माँ की..... !

आज सुबह से व्यस्तता की वजह से समय नहीं मिल पाया, कल इसे अपने ब्लॉग पर डाला था, मगर फिर यह सोचकर इसे हटा लिया था कि आज तो देश उन शहीदों को याद कर रहा है, जिन्होंने पिछले साल पाकिस्तानी दरिंदो से लड़ते अपने प्राण न्योछावर किये, मगर, अगर हम लोग इस चिंगारी को सुलगाये नहीं रखेंगे तो ये हमारे कमजोर याददास्त वाले देशवासी कलतक सब कुछ भूल जायेंगे ! इसलिए मैंने कल इसे डिलीट कर दिया था, आज पुनः लगा रहा हूँ !

जैसा कि आप सभी जानते है कि पिछले साल पाकिस्तान से आये अन्य नौ राक्षसों के साथ इस एक जीवित बचे और इज्जत से पाले पोसे जा रहे दरिन्दे, अजमल कसाब ने सेकड़ो निहत्थे, निर्दोषों को मौत के घाट उतारा था! उसके बाद खबर आई थी कि इस दरिन्दे की माँ (अम्मी ) नूर इलाही उससे मिलने मुंबई आ रही है ! फिर पता चला कि इस दरिन्दे को आतंकवादियों के हाथो इसके ही बाप (अब्बू ) मोहमद अमीर ईमान ( जैसा कि अमूमन देखा गया है उसी परिपाटी पर खरे उतरते हुए हरामखोर नाम{अमीर ईमान } के ठीक विपरीत भिखमंगा था, और एक नंबर का बेईमान भी ) ने बेचा था, तो यह जान कर उसकी अम्मी काफी विचलित है और जिन्ना को एक चिठ्ठी लिख रही है, आईये, देखे कसाब की माँ की चिट्ठी जिन्ना के नाम;



क्या मिला जिन्ना तुझे, तेरे पाकिस्तान बनाने मे ,
क्या–क्या न सहा जालिम इस जह्न्नुम मे आने मे !
इससे बेहतर तो हम उस पार हिन्दुस्तान में ही थे,
जाने कैसे आ गए भले मानुष , तेरे इस बहकाने मे !!

आशाओं का दीपक मैने जलाया था जिस 'ईमान' संग,
उसी कम्वख्त ने खुद पहल कर दी उसको बुझाने मे !
चंद रुपयों की खातिर बेच डाला इस काफिर ने उसे,
कसाइयों के हाथो, न रहे उसके दीमाग ठिकाने मे !!

जालिम ईमान ने थोड़ी भी ईमानदारी दिखाई होती,
फिर क्यों आज इसकदर थू-थू मिलती हमें जमाने में !
और न वहाँ उस पार मुंबई में सेकड़ो माँ-बहिने रोती,
अगर कसाब ने बस्ती को न बदला होता बूचड़ खाने में !!

कसाब को बेचने की जो कीमत मिली थी, खा-पी ली,
नंगे थे, नंगे है , अब कुछ भी तो नहीं बचा खजाने में !
सोच रही थी कबसे कि अपना दर्द तुम्हे लिखकर भेजू ,
करते-करते साल बीता दिल की यह बात बताने में !!

Thursday, November 26, 2009

आह्वान- उठ, जाग मुसाफिर जाग !

कद्र हो जहां शान्ति की, वहां शान्ति का इजहार कर,
यही इन्सानियत का सार है,हर इंसान से प्यार कर,
पथ अहिंसा का नितान्त, यहाँ एक श्रेष्ठतम मार्ग है,
पर दुश्मन न माने प्यार से, पलटकर तू वार कर !


यूं हम सदा से शान्ति के, पथ पर ही चलते आये है,
किन्तु ऐवज मे हमने हमेशा, जख्म ही तो पाये है,
जिल्लत उठाई खूब,मुगलों और फिरंगियो से हार कर,
अगर दुश्मन न माने प्यार से, पलटकर वार कर !


आखिर इस तरह कब तक सहेगा, जुल्म सहना पाप है,
क्रूर दानव दर पे है बैठा, यह हम पर एक अभिशाप है,
छद्म युद्ध थोंपा है उसने, निरपराध का नरसंहार कर,
गर दुश्मन न माने विनम्रता से, पलटकर तू वार कर !


आपस मे ही हमको लड मराया, जाति-धर्म की ठेस ने,
भाषा-क्षेत्र मे बांट अपनो को , जयचन्द पाले देश ने,
खुले हाथ को बना मुठ्ठी, जन-धन को रख संवार कर,
गर दुश्मन न माने विनम्रता से, पलटकर वार कर !


अन्याय की आहट पे गर, तू खुद ही नजरें फेर लेगा,
इसे शत्रु अशक्तता समझकर, आ तुझे फिर घेर लेगा,
लोग कायर समझ बैठे , ऐंसा न कोई व्यवहार कर,
गर दुश्मन न माने विनम्रता से, पलटकर वार कर !


जमने न दे हर्गिज लहू को, वीरता दिखाना फर्ज है,
मत भूल जननी,जन्म-भूमि का,एक तुझ पर कर्ज है,
न उलझ मायाजाल मे, स्वार्थ की हद पार कर,
अगर दुश्मन न माने विनम्रता से, पलटकर वार कर !


छिपकर सदा की तरह, वैरी का तुझपर वार होगा,
खुद ही लड्ना है तुझे, कोई न तेरा मददगार होगा ,
जो समझे न बात को शिष्टता से, उससे तकरार कर,
गर दुश्मन न माने विनम्रता से, पलटकर वार कर !


सरहदो पर हौंसला असुर का, हो रहा नित सशक्त है,
उठ,जाग मुसाफ़िर जाग, अभी भी पास तेरे वक्त है,
तू दे जबाब मुहतोड उसको, घाट मृत्यु के उतार कर,
अगर दुश्मन न माने विनम्रता से, पलटकर वार कर !


मुफलिसों के तलवों जिन्दगी, घुट-घुट के ही खो जायेगी ,
जाग मुसाफिर जाग, वरना बहुत देर हो जायेगी,
फिर फायदा क्या, अगर पछताना पड़े थक-हार कर,
अगर दुश्मन न माने प्यार से, पलटकर तू वार कर !

Sunday, November 22, 2009

यादें !

फिर शरद ऋतु आई है,
अलसाये से मौसम ने भी
ली अंगडाई है !
आज फिर से कुछ यादे,
ताजी होकर,
सर्द हवाओं संग
चौखट से अन्दर घुसी तो
फूल बगिया मे सब,
कुम्हला से गये है !
दिमाग मे हरतरफ़
वो श्याम-श्वेत चल-चित्र
चहल कदमी करने लगे
फिर से,
जो वक्त के थपेडो संग
कुछ धुंधला से गये है !!

वो पल,
वो हंसीन लम्हें,
तुम्हें याद हैं न
कि जब
मेरी रूह की परछाइयों से,
इक आह निकली थी !
और युगो से,
सांसों मे भट्कती
किसी अतृप्त तड्पन ने,
धड्कते हुए तुम्हारे
दिल के किसी कोने पे,
खुबसूरत सी वो
इक नज्म लिखली थी !!

और फिर हम
निकल पडे थे तलाशने
अपने लिये
दूर गगन की छांव मे,
एक सुन्दर सा आशियाना !
देखो न,
तुम तो नज्म भी साथ ले गई,
मगर मैने,
उस नज्म का एक-एक मिसरा
कंठस्थ रखा है ,
और हरपल,
गुनगुनाता रहता हूं
वह प्यार का तराना !!

और तो और,
वो हमारे बेड रूम के,
डबुल बेड की दोनो फाटे,
जो तुम खुद ही
अलग-अलग कर गई थी,
मैने उन्हे न तो छेडा,
और न ही फिर से
वो आपस मे सटाई है !
कोने पे रखे
तुम्हारे उस
ड्रेसिंग टेबल के आइने पर
जमी धूल की मोटी गर्त,
इस डर से कि कही,
तुम्हारे माथे की
वह एक बिंदिया,
जो शायद तुम भूल बस,
आइने पे ही
चिपकी छोड गई थी,
कहीं गुम न हो जाये,
मैने इस लिये नही हटाई है !!
बस तुम्हारी
वही तो एक सौगात बची है मेरे पास !

Friday, November 20, 2009

भई, अपनी तो जिन्दगी मस्त है !


सुबह उठकर,
नहा -धो के नाश्ता किया,
झोला कांधे पे लटकाके,
मंझे पत्रकार की शैली में
टा-टा करके घर को !
निकल पड़ता हूँ दफ्तर को !!
दफ्तर पहुँच आँखों को
एक अलोकिक सुख की
अनुभूती होती है,
क्योंकि अपने
दफ्तर के रिसेप्शन की
साज-सज्जा ही कुछ ऐसी जबरदस्त है!
भई, अपनी तो जिन्दगी मस्त है !!

दफ्तर की पहली चाय के साथ,
कंप्यूटर खोला और लगे टिपियाने,
कुछ जो रात का लिखा था,
उसे अपने ब्लॉग पर डाला !
तभी कभी-कभार राउंड पे
आ टपक पड़ता है लाला !!
पहले से एक फाइल खोले रखता हूँ,
और झट से लैटर बनाने लगता हूँ ,
भले ही पत्र का
मैटर कोई याद नहीं,
मगर उल्लू बनाने में
मैं भी कम उस्ताद नहीं,
उसके बाद तो समझो,
बॉस ही काम के बोझ तले पस्त है !
भई, अपनी तो जिन्दगी मस्त है !!

सांझ ढले घर पहुंचा,
तो रोज एक सी ही रहती है दिनचर्या,
क्योंकि है भी नहीं कोई और जरिया,
बेटा अपना मस्त रहता है कुड़ियों में !
बेटी, ताना-बाना बुनती है गुड्डे-गुड़ियों में !!
बीबी, किचन में झूमती है आई-पोड में,
बूढी मम्मी मग्न रहती है अपने गौड़ में,
मैं भला किसके संग मन बहलाऊ अपनी रेंज में !
खुद ही गुम हो जाता हूँ, दो पैग रोंयल चैलेन्ज में !!
टीवी पे एक ऐड देखा था कि
सिर्फ चार हजार में रोंयल पेंट लगाओ
और पूरा का पूरा घर रंगीन पाओ,
मैं तो कहूँ कि
अरे छोडो ये बाते सारी,
भाड़ में गई दुनियादारी,
वो करो कि हर चीज तुम्हे भायेगी !
चार सौ की रोंयल चैलेन्ज लाओ,
पूरी दुनिया ही रंगीन नजर आयेंगी !!
महंगाई से दुनिया भले ही त्रस्त है !
पर भई, अपनी तो जिन्दगी मस्त है !!

Thursday, November 19, 2009

कभी मेरे शहर आना !

क्योंकि तुम मानते हो कि
शहर इक खुशनुमा जिन्दगी
जीने का आधार है न ?
तभी तो तुम्हे ,
शहरी जिन्दगी से
इतना प्यार है न ??
मगर ये बात सम्पूर्ण सच नही,
तुम्हे कैसे समझाऊ ?
यहाँ सांझ ढलने के बाद,
मै कैसे जीता हूं,
तुम्हे क्या बताऊ ?


अरे नासमझ,
गांव एवं शहर की जिन्दगी मे,
फर्क हैं नाना !
शहरी जिन्दगी देखनी हो,
तो कभी
मेरे शहर आना !!
तुम्हे दिखाऊंगा कि
कथित विकास की आंधी मे,
मेरा शहर कैसे जीता है !
प्यास बुझाने को
पानी के बदले , पेट्रोल-डीजल,
मिनरल और ऐल्कोहल पीता है !!

क्या घर, क्या शहर,
हर दिन-हर रात की
मारा-मारी में,
वो सिर्फ जीने के लिए जीते है !
जीवन की इस जद्दोजहद में
क्या शेर, क्या मेमना
सब के सब मजबूरी में ,
एक ही घाट का पीते है !!

ऊँचे उठने की चाहत में,
मकान-दूकान, सड़क-रेल,
यहाँ सब के सब,
टिके है स्तंभों पर !
जिन्दगी भागती सरपट
कहीं जमीं के नीचे,
तो कहीं खामोश लटकती ,
खम्बों से खम्बों पर !!

गगनचुम्बी इमारतों में
मंजिल तक जाने को,
पैर भी लिफ्ट ढूंढते है ,
खुद नहीं आगे बढ़ते !
ऊँचे-ऊँचे मॉल पर ,
सीडियों से
चड़ते -उतरते वक्त
घुटने नहीं भांचने पड़ते !!

एक बहुत पुराने,
किले का खंडहर जो
चिड़ियाघर के पास है ,
वहाँ आजकल दिन में भी
अतृप्त आत्माओं का वास है !
उसके सामने से
एक सीधी सड़क
पहुंचा देती है ,
उस एक खुले से मैदान में
जो अपने में ख़ास है !!

राजा से लेकर
रंक तक,
यहाँ विचरण करती,
हर तरह की हस्ती हैं !
इस मैदान से जो
सीधी सड़क जाती है,
उसके एक तरफ
मुर्दा-परस्तो की भी बस्ती है !!
उनके लिए तो बस आज है,
न कल था, न कल की
कोई आश है,
न कोई झूठ है न कोई सांच है !
सूरज ढलने पर
जहां हर रोज,
खचाखच भरे रंगमंच पर
सभ्यता दिखाती
अपना नंगा नाच है !!

कहीं मेरे इस शहर में,
कोई अभागन,
देह बेच कर भी दिनभर
भरपेट नहीं जुटा पाती है !
और कहीं,
कोई नई सुहागन ,
दुल्हे को वरमाला पहनाने हेतु,
क्रेन से उतारी जाती है !!

मैं तो बस,

हैरान नजरो से
देख-देखकर ,
सोचता रहता हूँ कि ,
यहाँ वन्दगी गा रही

यह कौन सा तराना !
ये दोस्त !
शहरी जिन्दगी देखनी हो,
तो कभी,
मेरे शहर आना !!


Monday, November 16, 2009

कबाडी और साहित्यकार !

आपने देखा होगा कि अक्सर घरो, गलियों मे आने वाला हर फेरिया व्यापारी अपना कुछ न कुछ सामान, जोकि अमूमन एक ही तरह की वस्तु होती है, बेचने को लाता है, कही एक खास जगह से खरीद कर, जबकि कबाडी इसके ठीक विपरीत भिन्न-भिन्न जगहों, घरों, गलियों से भिन्न-भिन्न तरह का कूडा खरीद्कर व इक्कठ्ठा कर, एक जगह पर बेचने ले जाता है । साहित्य-जगत मे एक रचनाकार भी एक कबाडी की ही तरह होता है, उस कबाडी की तरह, जो घर-घर जाकर कूडा इकठ्ठा करता है। साहित्य-जगत से जुडा एक रचनाकार अथवा साहित्यकार भी भिन्न-भिन्न जगहो, मौसमो, वातावरण और परिस्थितियों से साहित्यिक और बौद्धिक कूडा-कच्ररा अपने दीमाग मे इक्कठाकर लाता है, और फिर एक जगह पर उसे संग्रहित कर देता है, या फिर बेच डालता है। सचमुच कितनी समानताये है न, एक रचनाकार और एक कबाडी मे ? हां, फर्क बस इतना है कि कबाडी का इक्कठा किया हुआ कूडा तो उसे कुछ न कुछ आर्थिक अर्जन देता ही है, मगर साहित्यकार का कूडा उसे मौद्रिक लाभ भी देगा, इसकी कोई गारन्टी नही होती।

ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो,
साहित्य की गलियों के ।
वन और उपवन की
पौधे, फूल और कलियों के॥

कबाड खाने के ,
मंजे एक खिलाडी हो,
ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो ।

सर्दी, गर्मी और बरसात
सुबह, दिन, शाम,
शहर, गली, और धाम,
कुछ न कुछ,
बिनते ही रहते हो ।
हां, एक फर्क भी है,
कबाडी आवाज लगा कर,
कूडा खरीदता है,
मगर तुम चुपचाप,
कुछ भी तो नही कहते हो ॥

कहीं उस्ताद
तो कहीं अनाडी हो,
ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो ।

बस खामोश,
तत्परता से जुटे रहकर,
समेट लेते हो बौद्धिक कच्ररा,
दिमाग के गोदाम मे।
परख-परखकर,
जब ढेरों इक्कठ्ठा हो जाये
फिर लग पडते हो,
अपने असली काम मे ॥

सचमुच मे,
बडे ही जुगाडी हो ,
ऐ साहित्यकार !
तूम भी एक कबाडी हो ।

Friday, November 13, 2009

ख़त उसके नाम !

बहा ले जाए सुप्त-थमे हुए दरिया में भी जो ,
यहाँ हर तरफ ऐसी कुछ मौजो के सफीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
क्या बताऊ, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है !

माँ को माँ नहीं समझते, बहन को बहन नहीं,
बेरहमी का मंजर ये, मानो इनमें जहन नहीं
उंगली की मुन्दरिया के खोटे सब नगीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
और तो और, यहाँ के तो पत्थर भी कमीने है !

प्यास बुझाने को भी तोल के मिलता पानी है
दीन-ईमान की बात तो, सब के सब बेईमानी है,
बेचने को समेटते बूँद-बूद टपके हुए पसीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
तुम क्या जानो, यहाँ के पत्थर भी कमीने है !

बेशर्मी का आलम ये, शर्म न इनकी नाक में है
किसे लगाए ठोकर रहते,हरवक्त इसी ताक में है,
मार्बल के चेहरे इनके, तारकोल के जैसे सीने है,
तुम गाँव में ही रहो, शहर मत आना पगली,
तुम्हे नहीं मालूम, यहाँ तो पत्थर भी कमीने है !

Tuesday, November 10, 2009

आज बस इतना ही .....

फिर से लुटती देखी सरे-आम अस्मिता, विधान भवन के कुंजो ने !
जब हमारी राष्ट्र-भाषा को बेइज्जत किया, कुछ सियासी टटपुंजो ने !!

अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु राष्ट्र-गीत,राष्ट्र-भाषा की आबरू लूटने वालो !
तुमसे किस तहजीव में पेश आये, बस यही कहूंगा, डूब मरो सालो !!

Monday, November 9, 2009

शराफत और प्रेम !

१;

लापरवाह बहुत हो,
आज सुबह-सबेरे
जब मै ,
तुम्हारी गली से गुजरी थी,
घर के बाहर गली मे
तुम्हारा कुछ सामान
पडा देखा !


अरे वो ?
हां,हां…..
तुम ठीक ही समझी,
वो मेरी
शराफत का चोला था,
जिसे मैने कल रात,
बस यूं ही ….
खुन्दक मे,
उतार फेंका !!




२;

प्रेम भी
अब नही बचा
आडम्बर के
परिवेश से !
कभी
प्रेम सच्चा होता था,
चाहे वह इन्सान से हो,
या फिर देश से !!

मगर आज हर चीज को
’स्युडोइज्म’ (छद्मता) का
ऐसा बुखार चडा है !
कि दिखावे को ही सही,
मगर इन्सानी धर्म,
राष्ट्र-धर्म से बडा है !!

आज सच्चा प्यार तो
दबा कहीं
तुष्टिकरण की ढेर रहा,
बस छद्म प्यार ही
इस कदर जलवे बिखेर रहा,
हकीकत क्या है
कोई भी उसे
गहनता से नही लेता !
प्रेम के मायने वो बन गये
जो कुछ कम-संख्यक
आज
इस देश से कर रहे,
और
उन कम-संख्यको से
हमारे धर्म-निरपेक्ष नेता !!

Saturday, November 7, 2009

गलत वो नहीं हम है !

वन्दे मातरम् ,
धरती माँ के नमन का गीत है,
और दर्शाता,
धरती के प्रति इंसां की प्रीत है !
जिसमे उसने,
जन्म लिया, खेला, पला, बढा ,
और मिट गया,
फिर उसी माटी का तिलक चढा !
उसी धरा को,
समर्पित उसका यह गीत है,
जो दर्शाता,
धरती के प्रति इंसां की प्रीत है !!

जिसने भी,
धरा के गीत को नकारा है आज,
मै तो कहूंगा,
की गलत नहीं है वह बन्दा नवाज !
वह जब,
इस धरती के प्रति वफादार ही नहीं,
तो उसके लिए,
भला गीत की क्या उपयोगिता रही ?
गलत तो हम है,
जो उसे समझने में ही गलती किये रहे,
और खुद ही,
आस्तीन में सांपो को दूध दिए रहे !

दगा देना,
तो उसकी सदियों पुरानी रीत है !
वन्देमातरम,
धरती माँ के नमन का गीत है !!

Friday, November 6, 2009

बेच खाया देश को........

सत्ता की बागडोर पकड़ ली,
लुच्चे  और लफंगों ने !
बेच खाया इस देश को,
भूखे और नंगो ने !!

सोने की चिडिया कभी ,
इसका सर्वनाम था !
अनजान  पथिक  के लिए ,
यह आश्रय-धाम था !!

चहु दिशा  से  लपेट लिया
अब बिषधारी  भुजंगों ने !
बेच खाया इस देश को,
भूखे और नंगो ने !!

तुष्टिकरण के लिए बिक रहा ,
राष्ट्र -सम्मान है !
कहीं भी अब बचा नहीं,
धर्म-ईमान है!!

लोकतंत्र शर्मशार कर दिया,
मानसिक अपंगों ने !
बेच खाया इस देश को,
भूखे और नंगो ने !!

Thursday, November 5, 2009

जाने क्यूँ ?


जाने क्यूँ ?
हम पक्षी भी न,
बड़े अजीब होते है
मेहनत करके
आशियाना कोई और बनाते है !
और तिनका-तिनका समेट
सपने सजाने हम पहुँच जाते है !!

तुम्हे याद होगा,
वह बड़ा सा घर
और उसकी सह्तीर
जिसपर,
तुम्हारे और मेरे
माँ-अब्बू ने भी
अपने-अपने घरौंदे सजाये थे,
अपने सपनो का जहां बसाया था
सुदूर उस अंचल, उस पहाड़ में !
याद है
कितनी मेहनत करते थे वो
सर्द बर्फीली हवाओं से लड़कर,
हमारे लिए,
दाना-दाना जुटाने के जुगाड़ में !!

और जब
हमारे पर निकल आये तो....
तुम्हे याद होगा,
तुम्ही ने तो उकसाया था
मुझे संग अपने उड़ जाने को !
और मैं भी,
फुर्र करके उड़ दी थी,
तुम्हारे संग इक नया
अपना आशियाना बसाने को !!

करते-करते
इतने बरस बीते,
अपना घर-अंगना छोड़,
इस अजनवी परदेश में,
सब कुछ होते हुए भी
मन के बर्तन है रीते,
जाने क्यों ?
अपने लिए इक अदद घोंसला
तक नहीं ढूँढ पाए अब तक
सिर्फ इस भय से डरकर यूँ !
कि अगर हमारे बच्चे भी
हमारी ही तरह किसी दिन,
हमारा घर छोड़,
पंख फडफडाकर उड़ गये कहीं तो...
ये बेहतर विकल्प भी
घर से दूर ही होते हैं
अक्सर, न जाने क्यूँ !!



साभार: समीर जी के आज के लेख "आसमानी रिश्ते भी टूट जाते है" से प्रेरित लेकर !

Tuesday, November 3, 2009

तुम सुन रहे हो न ?


सुनो न,
तुम सुन रहे हो न ?
पता नही क्यों,
यह मोबाइल फोन,
आजकल इस पर सिगनल
ठीक से नही आते-जाते !
जब से तुम गये हो,
पूरे चार साल हो गये,
लगता है यह भी थक गया,
साथ मेरा निभाते- निभाते !!

तुम सुन रहे हो न ?
कल रात को सुलाते वक्त,
तुम्हारा यह लाड्ला,
मेरी बाहों के सिरहाने पर लेटे-लेटे,
अचानक पूछ बैठा
कि ममा, ये ’पापा’ कैसे होते है ?
उसके इस अबोध सवाल का
भला मैं क्या जबाब देती
उसका मन रखने को
बोली कि बेटा,
जो तुम्हारी ममा को जगा
खुद कहीं चैन की नींद सोते है !
ये पापा ऐसे होते है !!

उसने फिर सवाल किया,
कि ममा, जब भी रात को
तुम मुझे सुलाने लगती हो,
तो मेरे गालो पर
ये पानी की बूंदे
कहां से आकर गिरती हैं ?
मेरे चुप रहने पर
जिद करता है कि ममा तुम कुछ कहोगी !
मै उसे झिड्क देती हूं कि
अब तुम सो जावो,
सर्द रातों का मौसम है,
कहीं आसमां से ऒंस गिरती होगी !!

तुम सुन रहे हो न ?
उतनी देर से
सिर्फ़ हूं-हूं किये जा रहे हो,
तुम कुछ कहो न !
मै तो उसे समझाते-समझाते
थक जाती हूं,
मगर उसे कोई यकीं नही
दिला पाती हूं !
हरदम तुम्हे 'मिस' करता है,
तुम्हारी तस्वीर देख
हंसने लगता है,
तुम्हे देखेगा तो
उसका तो रोम -रोम खिलेगा !
कब लौट रहे हो ?
तुम्हे तुम्हारा वो
'ग्रीन कार्ड' कब तक मिलेगा ?

इमोशनल ब्लैक मेल

Monday, November 2, 2009

तेरा ही लिखा कोई अफ़साना लगा !


सुन्दर सा वह उनका आशियाना लगा,
जग सारा ही अपना घराना लगा !
कुछ लम्हा ठहरे तो गैरों के दर पे थे,
जाने क्यों अपना ही ठिकाना लगा !!

अब तक जी रहे इसी गफ़लत मे थे,
कि होता नही कोई किसी का यहां !
पलभर जो शकूं उनके आंचल मे मिला,
तो अपना हमे सारा जमाना लगा !!

बिठा अंगना मे पसरे गुलाब के झुरमुट,
और अपनी घनी जुल्फ़ो की छांव तले !
हौले से जो गुनगुनाया उस कमसिन ने,
हमको अपना ही कोई तराना लगा !!

घडीभर के लिये मुस्कुरा भी दिये वो
नजरें चुराकर कुछ मेरी नादानियों पर !
मगर हमको तो वह भी महज उनका,
दिल को बहलाने का इक बहाना लगा !!

यूं तो गम की दवा पीकर ही गुजार दी,
हमने भी यहां अपनी तमाम जिन्दगी !
सुरूर जो साकी के परोसे हुए जाम मे था,
हमें ऐसा न कोई मयखाना लगा !!

सोचता था अब तक कि इस जहां मे,
अकेला मैं ही दर्द-ए-गम का मारा हूं !
जिसे समझता था मै किसी गम की दवा,
वह खुद ही गमों का खजाना लगा !!

हुआ जब रुखसत तु उनकी महफिल से,
कुछ पल ठहरने के बाद ’गोदियाल’ !
छ्लका जो दर्द उनकी आंखो से था वो,
तेरा ही लिखा कोई अफ़साना लगा !!