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Tuesday, August 4, 2009

रक्षाबंधन पर !


प्रिय कलयुगी भाइयों (बहनों के) ,
आज रक्षाबंधन है , भाई-बहन के प्यार और पवित्र बंधन का त्यौहार ! जैसा कि आप जानते ही होंगे कि पुराने जमाने में जब लोग वीर होते थे, सतयुगी थे, उस जमाने में वे इस त्यौहार पर बहन को हर हाल में उसकी रक्षा का वचन देते थे ! कहते है कि गहने स्त्री की शोभा होते है, और इसी लिए रक्षा बंधन के दिन भाई लोग अपनी सामर्थ्य के हिसाब से बहनों को उपहार स्वरुप गहने देते थे ! आज आप भी दफ्तर में, बाजार में, सडको पर, घर पर माँ-बहनों को देखते होंगे, खाली गर्दन, कानो पर नकली टोप्स, हाथो में नकली कड़े ! वो इसलिए नहीं कि सोना महंगा हो गया और वे खरीद नहीं सकते, वो सिर्फ इसलिए कि आपका दूसरा कलयुगी भाई झपटमार है (इसीलिए इस कलयुग में भाई के म्याने भी बदल गए, अंडरवल्ड की दुनिया में सबसे शातिर किस्म के बदमाश को भाई कहते है ) चेन के लिए बहन की गर्दन भी काट सकता है! आज शहरों में हमारी ज्यादातर बहने, अपने पैरो पर खड़े होने की कोशिश कर रही है,मगर बुनियादी सुबिधावो के नाम पर हमने उन्हें क्या दिया? अरे ! हम तो जहां-तहां अपनी बेशर्मी की मिशाल प्रस्तुत कर देते है, क्या कभी आपने यह जानने की कोशिश की कि हमारी बहनों के लिए शहर में,बस स्टोप्स के आसपास कितने शौचालय बने हुए है? क्या उन्हें इसकी जरुरत महसूस नहीं होती?


अधफटे लिफाफे के अन्दर,
कागज़ के चंद टुकडो में,
चन्दन-अक्षत की
पुडिया संग लिपटा पडा था....
शहर की मुख्य सड़क किनारे,
कूडेदान के बाहर,
उसे देखते ही लगता था,
मानो किसी ने उसे
बड़े प्यार से सहेजा था !
हवा के झोंको संग
फडफडाता....
मंजिल पे पहुँचने को बेताब,
वह धागा,
शायद कहीं दूर से,
अपने भाई के लिए
किसी बहन ने भेजा था !!

धागे के मध्य में जड़ा
चमकता वह सितारा ,
लिफाफे के उस खुले भाग से,
बाहर झाँकने की कोशिश करता
हर आने-जाने वाले को,
यूँ देखता मानो,
वह शहर,
अभी-अभी जागा है !
उसे नहीं मालूम
कि दुनिया,
कहाँ की कहाँ चली गई,
प्रगति के पथ पर,
जिसमे बहन की आबरू
सड़को पर विखर जाती है ,
वह तो फिर भी
सिर्फ इक धागा है !!

3 comments:

ताऊ रामपुरिया said...

जिसमे बहन की आबरू
सड़को पर विखर जाती है ,
वह तो फिर भी
सिर्फ इक धागा है !!

बडा कटु सत्य लिखा है. शुभकामनाएं.

रामराम.

ताऊ रामपुरिया said...

जिसमे बहन की आबरू
सड़को पर विखर जाती है ,
वह तो फिर भी
सिर्फ इक धागा है !!

बडा कटु सत्य लिखा है. शुभकामनाएं.

रामराम.

'अदा' said...

जिसमे बहन की आबरू
सड़को पर विखर जाती है ,
वह तो फिर भी
सिर्फ इक धागा है !!

क्या बात कही आपने..
बहुत ही सामयिक और सटीक....
वाह...और कविता ऐसी सटीक की शायद सटीक भी उतनी सटीक न हो....
आप अपनी पीठ ठोक लें हमारी तरफ से...