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Tuesday, April 28, 2009

पुनरावृत्ति !

एक सुनहले दिन ढले,
दो उभरती शामे
अपने एक सुखद,
पहले मिलन की
रजत जयंती पर !
बैठ फुरसत के,
चंद लम्हों तले,
शांत किसी समुद्र के
सुनशान 'बीच' पर !!
करते हुए,
कुछ अनबुझे सवाल
लगी कहने, प्रिये !
कालचक्र के साथ-साथ,
हर एक दिन ढल जाता है !
चाहे वह,
चाँद की चांदनी हो,
या हो सूरज की आग
सब शिथिल पड़ जाता है !!
अब तुम्हे नहीं लगता कि,
न जमीं तपती है,
न आस्मां बरसता है !
नील गगन की छांव तले,
सुदूर क्षितिज पर,
दिल फिर से,
मिलन को तरसता है !!
ऐसा क्यों होता है प्रिये,
क्या पुनरावृत्ति संभव नहीं ?

Saturday, April 25, 2009

मै अपने गांव गया था !



हिमछादित उपत्यकाओं
के मध्य,
जीवन दायिनी
मां गंगा के पावन तट पर,
सप्तरंग समेटे खडा,
हिमालय लिये
उदर मे सतसरोबर,
कई वर्षो बाद,
भीड भरे इस
शहर से निकलकर,
जा पहुचा सीधे,
अपने उस लाटा गांव मे !


खुशनुमा गर्मी के मौसम मे,
लाटा-लाटा सा हुआ
हर तरफ़ समा था,
छुट्टियां बिताने पहुंचा
मेरे जैसे कई लाटो का
गांवभर मे हुजूम जमा था,
दिल खुश था देखकर
वो छोटे-छोटे पौधे,
जिन्हे कभी छोड आया था
मै अकेला आते शहर,
लम्बे-लम्बे दरख्त बन चुके थे
रहकर उन चन्द,
बुजुर्ग तरुवो की छांव मे !


किसी ने उन्हें इन शहरी
पौधों की तरह,
कभी फवारे से पानी
न सींचा, और न
मदरडेरी की खाद खिलाई
जितने दिन मै वहा रुका,
देखकर उनका वो अल्हड्पन,
वो बेफ़िक्री की जिन्दगी
याद मुझे बहुत आया
अपना भी बचपन,
यही सोचता रहा
कि पेट के खातिर,
इन्सान जाने क्यो
डाल देता है खुद ही
बेडियां अपने पांव मे !

Monday, April 13, 2009

नया शौक !

पाक-साफ़ रह कर भी हमको क्या मिला
मिला क्या पाले लाजो-शर्म जमाने का,
अब तो तमन्ना लिए फिरते है ऐ-गाफिल
दाग कोई अपने दामन पर लगाने का !

यूँ तो हर इक मंजिल-मुकाम पर अब भी
प्रयास बदस्तूर कायम है हमें सताने का
तोड़ डाल सारे रस्मो रिवाज के बंधन
ये आगाज हुआ फिर किसी अफ़साने का !

कभी दिल में इक ख्वाब था संजोया हमने
भाग्य को अपने संवार कर दिखाने का
पर अब सर्द हवाओं ने रुख बदल लिया
भूल कर जैसे पता कहीं अपने ठिकाने का !

आफताब करने दिल का जर्रा-जर्रा, हमने
रुख कर लिया साक़ी शब-ए-महखाने का
पड़ जाए कुर्ते पे जरा लाल-लाल छींटे
पाला है शौक नया हमने पान चबाने का !

Sunday, April 12, 2009

आदर्श नागरिक बने !

कद पांच फुट आठ इंच, रंग सावला और चेहरा गोल
मुख मुद्रा ऐसी मानो, मुंह से अभी फूट पडेंगे बोल,
उम्र पचास, सफ़ेद लिबास उसके बदन पर खूब भाता है
शक्ल से वह किसी अच्छे ब्रांड का चोर नजर आता है !

पांच वर्ष हुए,करबद्ध होकर मेरी गली मे आया था
वादो का एक बडा पुलिंदा,संग अपने वह लाया था
मांगता फिरता था विनम्र होकर वह लोगो से वोट
अपने विरोधी पर करता था वादाखिलापी की चोट

अबके नही आया,गत जुलाई मे ऊंचे दाम बिका जो
वादा निभाना तो दूर, पांच साल से नही दिखा वो
कोई जानकारी, सुराग मिले इस गुमशुदा के बारे मे
सूचित करने का कष्ट करे, आकर जनता दरवारे मे

राजनीति के गटर मे,एक लावारिश शव पड़ा मिला है
सफ़ेद कफ़न मे लिपटा, कई दिनो का सडा-गला है
भ्रष्टाचार के धागे से किसी ने उसकी जुबान सिली है
जेब से फटी-पुरानी एक आचार संहिता भी मिली है

इस सन्दर्भ मे कहीं एक प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज है
इन्सान होने के नाते, पहचान करना आपका फर्ज है
कोई जानकारी, सुराग मिले गर दिवंगत के बारे मे
सूचित करने का कष्ट करे जनता जनार्धन के द्वारे मे
- धन्यवाद !

Friday, April 10, 2009

'बे'घर और 'बे'कार नेता !

'नेता' की नित गिरती गुणवत्ता देखकर
आम आदमी क्यों न भला लाचार हो !
क्या उम्मीद रखे हम उस नेता से
जो साला खुद 'बे'-घर और 'बे'-कार हो !!

जो खुद मन से भूखा, तन से दरिद्र हो
देश का क्या ख़ाक भला काम करेगा ?
गर वह जीत भी गया चुनाव तो, पहले
खुद के 'घर-कार' का ही इंतजाम करेगा !!

गद्दी तलाशती है अपना एक अदद वारिस
जो देश-दुनिया को फिर से नई दिशा दे !
जिसका कोई अपना ईमान-धर्म हो और
हमारी युवाशक्ति को एक राह दिखा दे !!

सोचा न था कभी कि आजादी के मायने
अराजकता हो, लूचे-लफंगों की सरकार हो !
क्या उम्मीद रखे हम उस नेता से
जो साला खुद 'बे'-घर और 'बे'-कार हो !!
-गोदियाल

Wednesday, April 8, 2009

जूते का बयान !

दफ्तर को निकलने की,
मारामारी में था,
कपड़े पहनकर,
जूते पहनने की तैयारी में था !

पास खड़ी श्रीमती ने,
अपनी मधुर जुबां खोली,
जूतों को हाथ लगा,
निहारती हुई बोली !

टायट लग रहे है,
कहीं काट तो नही रहे
मैंने ना में मुंडी हिलाई,
बिना कुछ कहे !

पैरो के नीचे से अचानक,
कोई आवाज आई,
और फिर इक व्यंगात्मक,
हँसी दी सुनाई !

दांया जूता बांये से
कह रहा था, मुस्कराते हुए,
अबे! इस मैडम से बोल,
अरसा हो गया लोगो को काटे हुए !

काट सकें, तुम इंसानों ने हमें,
अगर इस लायक छोड़ा होता,
तो आज जूता ख़ुद की बदनशीबी पे,
क्यो इस तरह रो रहा होता ?

सुनते आए थे कि इंसान एक घटिया,
जीव है धरा पर,
परख भी लिया अब तो हमने,
इराक,एसीसीआई के दफ्तर जाकर !

किसी के अपमान के लिए,
शस्त्र बनाया हमें सीधा-साधा देख,
ख़ुद की तस्सली के लिए
खीज निकाली किसी पर हमें फेंक!

इससे भी पेट न भरा तो ,
खुले आम हमारी बोली लगा दी !
नही बस चला तो चौराहे पर,
सरे आम होली जला दी !

कहे देते है,सीमा में रहकर,
इस्तेमाल करो वरना ,
भली भांति जानते है,
कि क्या हमें है करना !

गर अपनी पे आ गये हम भी,
उस दिन बुरी तरह घिरोगे,
किसी पोडियम के पीछे,अपने बुश और
चिदंबरम की भांति सिर बचाते फिरोगे !

Monday, April 6, 2009

एक तमन्ना !

काश ! अगर मै भी कवि होता
तुम्हारे इन मधुर स्वरो को
कविता के शब्द-रंगों में रंगता
काश ! अगर मै भी कवि होता

यदि होता बरसात का मौसम
हरा रंग विखराती धरती
ऊंची नीची पहाडियो से
निर्झर बह्ती कल-कल करती

यदि होता जाडे का मौसम
बर्फ़ गिरती आंगन मे झम-झम
सिकुड्न मेरे दिल मे होती
समा तेरी महफिल मे होती

यदि होता मौसम वसन्त का
संगीत उभरता मधुर कोयल का
फूल डगर मे बिखरे होते
महकती खुश्बू जागते सोते

यदि होता गर्मी का मौसम
खुले आंगन मे बैठ तुम और हम
हम गायक तुम होते श्रोता
काश! अगर मै भी कवि होता !

Saturday, April 4, 2009

अधूरी तलाश !

पाने को चंद खुशियों भरे पल ,
वह कहां कहां नही भागा है
लोग दिन को शकुं से सोते है,
वह काली रात को जागा है

यूं तो हर एक रात हमे ,
चैन की नीद सुलाने आती है
कुछ सो जाते है अपनो संग,
कुछ को तन्हाई सुलाती है

कहानी तन्हाई के तड्पन की,
जब भोर सुहानी लाती है
सोई थी जिस विस्तर पर वह,
हर सलवट कह जाती हैं

सिरहाना दे न सका बाहो का
उसे,वह ऐसा एक अभागा है
पाने को चंद खुशियों भरे पल ,
वह कहां कहां नही भागा है

तोड के उस निर्मम बेडी को,
पडी जो अनजाने ही पांव मे
बनकर पतंग उड जाना चाहे,
वह कंही दूर गगन की छांव मे

पर सफ़र के आधे रस्ते मे ही,
जो टूट गया वो वह धागा है
पाने को चंद खुशियों भरे पल ,
वह कहां कहां नही भागा है

Friday, April 3, 2009

किस्सा चतुर पंडित का !

यह कविता नहीं, एक चतुर पंडित का है किस्सा
ज्योतिषी में प्रवीण, मगर पडोसियों से थी उन्हें ईर्ष्या

एक बार बड़ा यज्ञं लिया, कुंतलो जौ-तिल फूके
निश-दिन शिव अराधना में, महीनो तक रहे भूखे

शिवजी प्रसन्न हुए और एक घंटी दी उन्हें वरदान
कहा जो इच्छा हो, घंटी बजाना, करना मेरा ध्यान

मनवांछित फल मिलेगा आवश्यकता पर तुमको
ध्यान रहे , तुम्हे एक मिलेगा तो पडोसियों को दो

मुझे एक पडोसियों को दो! मन में ईर्ष्या घिर आई
घर में खाने को न था कुछ, पर घंटी नहीं बजाई

पंडीताईंन ने घंटी आजमाई, जब पंडित न था घर में
जो कुछ माँगा शिवजी से, मिल गया उसे पल भर में

इधर अनाज की एक ढेर लगी, पडोसियों की दो
झोपडी बदल गयी महल में, और पडोसियों के दो

पंडित जी जब घर लौटे, गाँव बदला-बदला पाया
कैसे हुआ यह चमत्कार, तुंरत समझ में आया

ईर्ष्या के मारे रात भर सोच में पड़े रहे,नींद नहीं आई
सुबह सबेरे जब खड़े हुए,एक तरकीब समझ में आई

नहा-धोकर,बड़े जोर से बजा घंटी,किया शिव का ध्यान
भगवन ! मेरी एक आँख फूट जाए, माँगा यह वरदान

पंडित की इस चतुर-मक्कारी पर पडोसी सब दिए रो
पंडित की तो एक आँख ही फूटी, पडोसियों की दो

पंडीताईंन फूली न समाई, पंडित की इस चतुराई पर
पडोसियों की सारी धन-दौलत बटोर लायी अपने घर

इसके बाद तो पंडित का सीना मानो गर्व से तन गया !
कुछ समय बाद चुनाव हुए और पंडत नेता बन गया !!
-गोदियाल

Wednesday, April 1, 2009

ऎ गम-ए-जिन्दगी !

न मुझको अब और सता,
तु कम से कम यह तो बता
ऎ गम-ए-जिन्दगी !
दिया किसने तुझे मेरे घर का पता ?

वो अवश्य मेरा कहने को कोई,
अपना ही रहा होगा
भला गैरो को क्या जुर्रत
और कहां इतनी फुर्सत
सीधे से नाम बता दे उसका
अब और न हमदर्दी जता
ऎ गम-ए-जिन्दगी !
दिया किसने तुझे मेरे घर का पता?

बे हया ! तू भी सीधी चली आयी,
बिन बुलाये मेहमान की तरह पर,
मेरी बेबसी का तनिक तो
ख्याल कर लिया होता
माना कि है नही कोई दरवाजा,
जिसे बंद रख पाता
तुझे धक्के दे निकाल न पाया,
तो थी इसमे मेरी क्या खता ?
ऎ गम-ए-जिन्दगी !
दिया किसने तुझे मेरे घर का पता ?

मत छेड़ दूखती रग को ?

मत पूछ ऎ दोस्त, किस तरह जीते है,
शराब छोड दी, अब अश्क ही पीते है,
खुशी बांट्ते अकेले, रोते भी अकेले है
6”x8”की पलंग पर सोते भी अकेले है
हर दिन महिने साल किस तरह बीते है
मत पूछ मेरे दोस्त, किस तरह जीते है
पीने को इक याद दिल मे संजो लाये थे
और इक याद कहीं दिल मे छोड आये थे
कभी सोचा पीने मे क्या रखा,खूब जियो,
कभी सोचा जीने मे क्या रखा,खूब पियो,
न जी पाये,न पी पाये,हाथ रीते थे रीते है
मत पूछ ऎ दोस्त, किस तरह जीते है,

अभिशाप !

वो जमाना गया जब स्वर्गीय मुकेश ने गाया था " सदा खुश रहे तू .... इस मंदी के ज़माने में यह मुमकिन नहीं अतः;

बेबफ़ा ! तेरा भी जिगर जले, मेरे जिगर की तरह
खुदा करे, तेरा भी घर उजडे, मेरे इस घर की तरह
जलन के मारे सुबह से शाम तक तू भी करे हाय-हाय
डाइजीन बेअसर, तेरा भी सर घूमे मेरे सर की तरह
थी शायद मुझसे तेरी कोई पिछ्ले जन्म की दुश्मनायी
भला बेवजह कोई करे बैर क्यो, जल मे मगर की तरह
इस जिन्दगी की लहरो को तूने किनारे पे फेंक डाला
मझधार मे डूबे तेरी भी नैंया, किसी भंवर की तरह
गिरा न पाये है दो आंशू भी मायूस मेरे ये दो नयन
बहती रहे तेरी आंखे हर वक्त किसी नहर की तरह
कफ़न मे लिपटे तेरा वो पूरा का पूरा मन्हूस शहर
ज्यो उदासी के कोहरे मे लिपटे मेरे शहर की तरह