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Tuesday, March 31, 2009

मेरा मुल्क !

जालिमो ने मेरे इस मुल्क मे,
ये कौन से नये भंवर डाले है ?
गिर गया हर इंसान इतना कि
कंही हवाला है,तो कंही घोटाले है !

किस ओर जा रहे है हम सब ?
है हमारी ये कौन सी नई पह्चान?
हो गयी धन से मुह्ब्बत इतनी कि
हमने ईमान-धर्म सब बेच डाले है !

देश रक्षा की कस्मे खाते-खाते
पूरी तोप ही खा डाली हमने,
कुछ ने तो पशु-चारा भी नही छोडा
ये कसाई है या ग्वाले है ?


डाकुवो के हाथ मे है बाग्डोर
बाल्मिकि बन गये सारे के सारे चोर
खाद,वर्दी,अनाज सब खा चुके, अब
न जाने कौन सी रामायण लिखने वाले है

कहा ले जायेगी हमे इनकी ये सडक?
है कौन सा गोदाम जहां घुसते नही ये बेधडक
अब तो कानून भी इनका, पुलिस भी इनकी
मजबूर चाबियां है, लाचार ताले है

:-यह कविता मैंने बहुत पहले ०९ जून १९९६ को लिखी थी:



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ऎ खुदा! जो तुम्हे मंजूर, वो हमे मंजूर,
नैंया दोनो की है मजधार मे,
तुम भी मजबूर, हम भी मजबूर
क्या करे, किसे दोष दे, और देकर फायदा?
सब तकदीर के खेल है जहां वाले,
न तेरा कसूर, न मेरा कसूर !!

Monday, March 30, 2009

जिन्दगी, तु किस मोड पे ले आयी है !

किसी की बद्दुआ कहु इसे या फिर
अपनी किस्मत के सित्तम,
न जाने क्यों खुशियो के काफ़िले
बचकर मेरे घर से निकलते है!
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ऎ जिंदगी,यह तु किस मोड पे ले आयी है
आगे कुंआ,पीछे अतीत के जख्मो की खाई है
ऎ जिंदगी,यह तु किस मोड पे ले आयी है


जीना हमने भी चाहा तुझे,अपने ही ढंग से
रंगना हमने चाहा तुझे, मनचाहे रंग से,
पर जाने किस्मत कौन सा, बदरंग लायी है
ऎ जिंदगी,यह तु किस मोड पे ले आयी है


वो अल्हड बचपन, वो बेफिक्री के दिन-रैन
फूहड सी हंसी,भाव-निर्दोष चेहरा,चंचल नैन
गुमशुदगी पे इनकी रोने के, तु मुस्कुरायी है
ऎ जिंदगी,यह तु किस मोड पे ले आयी है


न जाने क्या-क्या जुल्मो-सित्तम हम पर हुए
खुसी मिलना तो दूर, बस गम ही गम सहे
इसे मजबूरी समझु कि ये तेरी बेबफ़ाई है
ऎ जिंदगी,यह तु किस मोड पे ले आयी है


करु भी अब और मै कोई शिकवा किससे
खौफ़जदा सा लगता यहा हर कोई मुझसे
डरने लगी अब मुझसे खुद की परछाई है
ऎ जिंदगी,यह तु किस मोड पे ले आयी है


आखों में हसरत है, ख्वाब मे अन्धेरे है
अजीब इक कशमकश हरपल मुझे घेरे है
भीड है कयामत की,पर दिल मे तन्हाई है
ऎ जिंदगी,यह तु किस मोड पे ले आयी है

-गोदियाल

Wednesday, March 25, 2009

हाँ, इनकी जय हो !

इन्होने ऊँच-नीच के अहसास को,
पिछले बासठ सालो से,
हर हिन्दुस्तानी के दिल में,
आरक्षण से जगाये रखा,
इसलिए इनकी जय हो !

इन्होने जाति-धर्म,क्षेत्र के हास को
पिछले बासठ सालो से,
छद्म-निरपेक्षता के अंगारों पर,
समाज में सुलगाये रखा,
इसलिए इनकी जय हो !

इन्होने गरीबी के उपहास को
पिछले बासठ सालो से,
अमीरो की जुबान में ,
तरतीब से सजाये रखा,
इसलिए इनकी जय हो !

इन्होने गुलामी के दास को
पिछले बासठ सालो से,
हर छोटे-बड़े नेता के घर में
दामाद बना के बिठाये रखा,
इसलिए इनकी जय हो !

इन्होने नेतावो के भोग-विलास को
पिछले बासठ सालो से,
चंदे और दलाली की विसात पर
बार और कोठो में पनपाये रखा,
इसलिए इनकी जय हो !

Friday, March 20, 2009

अल्लाह मेघ दे !

हे खुदा!
कर मुझी पे रहम इतना,
कि मेरी तकदीर,
वक्त-वेवक्त मुझसे,
हर इक बात पर मेरी रजा पूछे.
कि मेरी जिंदगी, मेरे हर गीत को,
वो नए अल्फाज़ दे
होकर मेहरबां, इस गले पर मेरे,
मुझे वो बुलंद आवाज दे
कि मंच पर माईक पकड़ क्षणिक,
मैं भी भौंक सकू !
व आँखों में किसी के धूल तनिक,
मैं भी झोंक सकू !!


मेरे निश्छल ने मुझे बेवकूफ, नालायक,
और न जाने क्या-क्या,
बचपन से ही कई उपनाम सुनाये,
दुनिया के मुख से,
उठते तूफां में हूँ इक 'दिया',
मेरे हौंसले को परवाज दे
हे खुदा ! मुझे भी छलने का कोई,
बढ़िया सा अंदाज दे
ताकि पाकर जनादेश जीत का पथिक,
मैं भी चौंक सकू!
व आँखों में किसी के धूल तनिक,
मैं भी झोंक सकू !!


फिर भर जाए तिजोरी मेरी,
लूट,खसौट और चंदे से,
रहम की भीख मांगे लोग,
आ-आकर इस बन्दे से
हे खुदा! अपार उस कुबेर के खजाने का,
मुझे वो राज दे
सालो उतरे न जो माथे से,
चमचमाता वो ताज दे
नोट अपने हाथो किसी को सार्वजनिक,
मैं भी सौंप सकू !
व आँखों में किसी के धूल तनिक,
मैं भी झोंक सकू !!
-गोदियाल


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बेबफाई पे अपनी, जब कभी
तुम देने लगो सफाई
तो करना बातें कुछ ऐसी निराली
कि अंदाज पे तुम्हारे मैं भी चौंक सकू !
तलाश यूँ तो हमको भी है ,
उन कुछ अदद आँखों की,
जिनमे कुछ पल को ही सही,
मगर चुटकी भर धूल, मैं भी झोंक सकू !!

Tuesday, March 17, 2009

अंधेरे का डर सताता है !

चेहरे पर भोर के उजाले के,
जो आया था परास्त कर
लम्बी,काली रात को अकेले ही,
अजीब सा इक खौफ,
अब साफ़ नजर आता है,
क्योंकि दिल के किसी कोने मे,
उसे भी अंजान किसी,
अन्धेरे का डर सताता है !

सूरज की एक किरण,
समेटे लिये ढेर सारी,
रोशनी अपने आँचल मे
दूर गगन से चली आती थी,
चिनार की पाती पर गिरी,
एक अकेली विरहन सी,
ओंस की बूंद को गले लगाने,
उसे अब वीरान वो मंज़र,
यहाँ नजर आता है !
क्योंकि दिल के किसी कोने मे,
उसे भी अंजान किसी,
अन्धेरे का डर सताता है !


तुफ़ान जो आतुर रहता था,
कभी औरो पर
कहर बरपाने को,
गरज कर जो था निकलता,
उन मंचली आंधियों के संग-संग,
किसी अशान्त समन्दर से,
वादियो की ओर
खफ़ा होकर,
बढती हवाओ बेवफ़ाई से
कभी-कभी,खुद के ही घर को,
तवाह कर जाता है !
क्योंकि दिल के किसी कोने मे,
उसे भी अंजान किसी,
अन्धेरे का डर सताता है !

कही दूर जंगल का,
कोई दकियानुसी ख्वाब,
चला था कही पहुंचकर ,
काल को सुधारने,
मगर नादान को,
नही था यह मालूम कि
सुदृड़ आधुनिक,
विज्ञान के धरातल पर फैली
कौशल की चिकनी राहो पर,
प्रगति के रंग मे सरागोश ,
वक्त कहा ठहर पाता है !
क्योंकि दिल के किसी कोने मे,
उसे भी अंजान किसी,
अन्धेरे का डर सताता है !

जिसे देख रहे है,
हम-तुम अचरज से ,
और जो आज सामने है,
हम सब के है वह
शायद, कलयुग का अपना
एक चरम बताता है,
पाप-पुण्य के
सागर के इस मन्थन मे,
असुर उठा रहा आज,
हर लुफ़्त अमृत का
और सुर थक-हारकर,
मजबूरन जहर खाता है !
क्योंकि दिल के किसी कोने मे,
उसे भी अंजान किसी,
अन्धेरे का डर सताता है !

Tuesday, March 3, 2009

कविता- आया फिर से चुनाव है !

गाँव-गाँव, शहर-शहर, हर कूचा और गली-गली,
लूचे-लफंगे,चोर-उचक्के, छोटे बड़े सभी बाहुबली!

आज अपनी मुछो पर हर कोई, दे रहा ताव है
क्यूंकि इस देश में यारो,आया फिर से चुनाव है !

आया चुनाव है, नेतागण फिर हो रहे विनम्र है,
इस महाकुम्भ में स्नान को कस रहे कमर है!

अपने किये पापो को धोने, गंगा में लगा रहे गोते,
शेर की खाल पहन, फिर गलियों में घूम रहे खोते!

मुख में इनके फिर सत्यवचन, माथे पर चन्दन है,
नए-पुराने इनके फिर, बन-बिगड़ रहे गठबंधन है!

इधर लोकतंत्र के महाकुम्भ का, गूंज रहा शंखनाद है
उधर चारो तरफ हमारे, फल-फूल रहा आतंकवाद है!

नापुंसको ने भी खूब उड़ाया, इस लोकतंत्र का मखौल,
अब इनकी शक्ले देख जनता का, खून रहा है खौल !

महंगाई और बेरोजगारी का दिलो पर ताजा घाव है,
लोकतंत्र के महापर्व का अब फिर से आया चुनाव है !

-गोदियाल