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Friday, March 5, 2021

'परचेत' : तलब

'परचेत' : तलब:   बयां हरबात दिल की मैं,सरे बाजार करता हूँ,  मेरी नादानियां कह लो,जो मैं हरबार करता हूँ। हुआ अनुरक्त जबसेे मैं,तेरी हाला का,ऐ साकी, तलब-ऐ-शा...

Tuesday, September 23, 2014

हम बेवफ़ा तो हरगिज न थे।


तरुण-युग, वो कालखण्ड,
जज्बातों के समंदर ने   
सुहाने सपने प्रचुर दिए थे, 
मन के आजाद परिंदे ने
दस्तूरों के खुरदुरेपन में कैद 
जिंदगी को कुछ सुर दिए थे।   

और फिर शुरू हुई थी 
अपने लिए इक अदद् सा 
आशियाना ढूढ़ने की जद्दोजहद, 
जमीं पर ज्यूँ कदम बढे 
कहीं कोई तिक्त मिला,
और कभी कोई शहद।

सफर-ऐ-सहरा आखिरकार, 
मुझे अपने लिए इक 
सपनो की मंजिल भाई थी,
पूरे किये कर्ज से फर्ज 
और गृह-प्रवेश पर
               संग-संग मेरे "ईएम आई" थी।            

अब नामुराद बैंक की 
'कुछ देय नहीं ' की पावती ही, 
हाथ अपने रह गई, 
हिसाब क्या चुकता हुआ  
कि नम आँखों से गत माह 
वह मुझे अलविदा कह गई।   

दरमियाँ उसके और मेरे 
रिश्ता अनुबंधित था,
वक्त का भी यही शोर रहा है, 
शिथिल,शाम की इस ऊहापोह में 
मन को किन्तु अब 
येही ख़्याल झकझोर रहा है।  

हुआ मेरा वो  'आशियाना ',
उसके रहते जिसपर  
हम कभी काबिज न थे,  
मगर, वह यूं चली गई, 
वही बेवफा रही होगी,
हम बेवफ़ा तो हरगिज न थे।  

तेरे इसरार पे मैं, हर हद पार करता हूँ।
















बयां हर बात दिल की मैं,सरेबाजार करता हूँ, 
कितनी बेवकूफियां मैं, ऐ मेरे यार करता हूँ।


जबसे हुआ हूँ दीवाना, तेरी मय का,ऐ साकी,
सुबह होते ही शाम का,मैं इन्तजार करता हूँ।


अच्छा नहीं अधिक पीना,कहती है ये दुनिया,
मगर तेरे इसरार पे मैं, हर हद पार करता हूँ।


खुद पीने में नहीं वो दम,जो है तेरे पिलाने में,
सरूरे-शब तेरी निगाहों में,ये इकरार करता हूँ।


तुम जो परोसो जाम,मुमकिन नहीं कि ठुकरा दूँ,
जब ओंठों से लगा दो तो,कब इंकार करता हूँ।


कहे क्या और अब 'परचेत',काफी है,ऐ साकी,
है कुछ बात तुझमे जो,मधु से प्यार करता हूँ।

Friday, August 8, 2014

नादां !

थाम लो उम्मीद का दामन, छूट न जाए,
  रखो अरमाँ सहेजकर, कोई लूट न जाए।   
तुम्हारे ख़्वाबों से भी नाजुक है दिल मेरा,
  हैंडल विद एक्स्ट्रा केयर,कहीं टूट न जाए।


उलटबासी 
शायद ही बचा रह गया हो कोई धाम,
क्या मथुरा, क्या वृंदावन,क्या काशी,
किस-किस से नहीं पूछा पता उसका,
क्या धोबी,क्या डाकिया,क्या खलासी, 
 सबके सब फ़लसफ़े,इक-इककर खफ़े, 
       लिए घुमते रहे बनाकर सूरत रुआँसी,        
उम्र गुजरी,तब जाके ये अहसास हुआ,
जिंदगी घर में थी, हमने मौत तलाशी। 

Wednesday, June 4, 2014

गफलत




क्यों आता नहीं तरस उनको, बढ़ती दिमागी खपत पर हमारे,
थककर हमें ही खिजलाना पड़ता है,बेताब इस हसरत पर हमारे।

तबीयत से फेंका था हमने अपने दिल को, उनके घर की तरफ,
जब हमको लगा,जाहिर कर दी मर्जी,उन्होंने भी खत पर हमारे।

हम रात भर तकते रहे ये सोचकर, सिरहाने रखे सेलफोन को,
सहमे से सुर,वो करेंगे और कहेंगे, कुछ गिरा है छत पर हमारे।

हमने तो इश्क में अपना सबकुछ, कर दिया उन पर न्योछावर,
और वो हमें उन्मत समझते हैं, बहकने की बुरी लत पर हमारे।

लेकर जाएं भी तो जाएं कैसे, उनको बना के अपना हमसफ़र,
हरकतों से लगते नही 'परचेत',जो साथ चलने को तत्पर हमारे।

Monday, April 28, 2014

ये मेरा शहर !


















खुद के दुःख में उतने नहीं डूबे नजर आते हैं लोग,
दूसरों के सुख से जितने, ऊबे नजर आते हैं लोग।

हर गली-मुहल्ले की यूं बदली सी  होती है आबहवा,
इक ही कूचे में कई-कई, सूबे नजर आते हैं लोग।

सब सूना-सूना सा लगता है इस भीड़ भरे शहर में,
कुदरत के बनाये हुए, अजूबे  नजर आते हैं लोग। 

कोई है दल-दल में दलता, कोई दलता मूंग छाती, 
कहीं पाक,कहीं नापाक, मंसूबे नजर आते है लोग।

बनने को तो यहां आते है सब,चौबे जी से छब्बे जी, 
किन्तु बने सभी 'परचेत', दूबे नजर आते है लोग।  

Friday, July 5, 2013

हर कोई यहाँ जल्दी में है !

पाकर आने की आहट
मौसम-ए- बरसात की,
एक पौधा बरगद का
रास्ते के उस छोर पर,
बाग़ के कोने में अपने
रोपने  जो  मैं चला तो ,
उधर से होकर
गुजरता हर एक राही
बस यही बुदबुदाता ;
"पागल है,
नीलगिरी का रोपता
तो कुछ फायदे में रहता।"

    

Friday, March 15, 2013

इटली वालों ......!

दगाबाजो, हमारे संग तो तुमने दगाबाजी काफी की है,
यह न पूछो, कब और कैसे, क्या-क्या नाइंसाफी की है।

हम तो यूं ही शराफत में मारे गए, तुम पर यकीं करके,   
इटली वालों, तुमने सरेआम हमसे वादाखिलाफी की है। 

खून इन्सानी  जज्बातों का बहाया, रिश्तों की आड़ में,
प्रश्न हमारे जीने-मरने का है, तुमको पडी माफी की है। 
   
भारतीयों की कीमत, सिर्फ इतनी सी आंकी है तुमने,   
हर्जाना-ऐ-जां, सोने-चांदी के सिक्कों से सर्राफी की है। 

'परचेत'ये दस्तूर पुराना है इन ख़ुदगर्ज फिरंगियों का ,  
हमारे पगड़ी-दुप्पटे उछाले, इनको चिंता साफी की है।  
साफी= रुमाल  

मायके वाले तो तुम्हारे, तुमसे भी बड़े दगाबाज निकले।


घर से ये कुटुंब वाले, क्या अरमान लेकर आज निकले,
इनके दिल की गहराइयों से, बस यही अल्फाज निकले।

छलने में यूं तो तुम्हारा कोई सानी नहीं बहुरानी, मगर
 मायके वाले तो तुम्हारे, तुमसे भी बड़े दगाबाज निकले। 

माशाल्लाह! क्या कहने है, तुम्हारे इन ससुरालियों का, 
 ससुर दिल फेंक और सैय्या झूटों के बड़े सरताज निकले।

गुलाम,टहलुआ तो क्या, धाक ऐसी जमाई प्रधान पर भी, 
मजाल क्या किसी की, खिलाफ तुम्हारे आवाज निकले। 

ये ठगों का बस्ता तुम्हारा,इस बस्ती का दुर्भाग्य समझो, 
जयचंदों की तो फ़ौज निकले, कोई न पृथ्वीराज निकले। 

रिश्तेदार होते हैं भरोसे के काबिल, टूटा ये भ्रम 'परचेत',
नेक समझा जिन्हें वो, कबूतर के चेहरे में बाज निकले। 
   

Wednesday, December 19, 2012

मर्जी के मालिक हो गए, यहाँ के सब कारिंदे है।













तन-आबरू बचाते कुछ मर गये, तो कुछ जिंदे है,
हर दरख़्त की शाख पर बैठे,डरे-डरे सब परिंदे है

खौफजदा नजर आता है, हर सरपरस्त शहर का,
क्योंकि बेख़ौफ़ सड़कों पे घूमते फिर रहे दरिंदे है।

शठ-कुटिलो का ही है बोल-बाला यहाँ  हर तरफ,  
नारकीय जीवन जी रहे देखो,सुशील (वा)शिंदे हैं।
  
यह न पूछो कि दहशत का ये आलम हुआ कैसे,     
दरवान जो थे, कुछ सोये पड़े है तो कुछ उनींदे है।

शर्म से सर हिन्द का तो, झुक रहा अब बार-बार,
किन्तु बेशर्म बने बैठे भ्रष्ट,जनता के नुमाइन्दे है।
    
दर्द हजारों है, फरियाद करें तो करें किससे 'परचेत', 
मर्जी के मालिक हो गए , यहाँ के सब कारिंदे है।

Saturday, December 15, 2012

सुनहरे तिलिस्म टूटे है


गली वीरां-वीरां सी क्यों है, उखड़े-उखड़े क्यों खूंटे है,
आसमां को तकते नजर पूछे, ये सितारे क्यों रूठे है। 

डरी-डरी सी सूरत बता रही, महीन कांच के टुकडो की,
कहीं कुपित सुरीले कंठ से,कुछ कड़क अल्फाज फूटे है। 

फर्श पर बिखरा चौका-बर्तन, आहते पडा चाक-बेलन,
देखकर उनको कौन कहेगा कि ये बेजुबाँ सब झूठे है। 

तनिक हम प्यार में शायद,मनुहार मिलाना भूल गए,
फकत इतने भर से ख़्वाबों के,सुनहरे तिलिस्म टूटे है। 

अजीजो को झूठी खबर दे दी,'परचेत' तेरे गुजरने की,
वाल्लाह,बेरुखी-इजहार के उनके, अंदाज ही अनूठे है। 

Wednesday, December 5, 2012

मैं हर घड़ी, घड़ी देखता हूँ !




दस्तूरन मैं भी एक मुसाफिर ही था और जिस मंजिल की तलाश मुझे थी वो तुम्हारे ही चौबारे पर आकर खत्म होती थी.…  मेरी मंजिल...... और मैं इकदम अकेला.......... कोई साथ मेरे यदि था तो तुम तक पहुँचने को बेकरार, ये कम्वख्त निहायत ही नादाँ और आवारा दिल। ये नालायक, यथार्थ के धरातल को छोड़ हमेशा ख्याली ऊंचाइयों के गगन में सुपरसोनिक विमानों जैसी उड़ाने भरता रहता। यह मुंगेरीलाल रूपी दिल हमेशा इसी अधेड़-बुन में उलझा रहता कि काश,  किसी तरह वह मेरी जिन्दगी को एक तोप और मेरे शरीर को एक तोप के गोले की तरह इस्तेमाल कर पाता तो  मेरे साबुत जिस्म को ही तोप में डाल,ट्रिगर दबाकर पल-भर में अपनी मंजिल पर जा धमकता। डफर, अक्सर यह भी आस लगाए रखता था कि क्या पता शायद किसी रोज मुझ पर तरस खाकर तुम्हारा कोई अजीज तुम् तक पहुँचने के तमाम अवरोध भरे रास्तों पर फ्लाई-ओवर बनाने का नेक कार्य कर बैठे, मगर, इस इडियट को ये कौन समझाता कि मंजिलों की राह इतनी आसान नहीं होती, क्योंकि बंदिशों की पथरीली,धूल-धर्सित, उबड़-खाबड़ और पैमानों की ऊंची-नीची सड़क, समाज के तमाम भीड़-भाड़ भरे उन चौराहों से होकर गुजरती है जहां कदम-कदम पर तुम्हारे अपने  सगे-संबंधी यातायात पुलिस के सिपाहियों की तरह बहिष्कार का फरमान रूपी चालान हाथ में पकडे खड़े रहते हैं, कि कब मैं खतरे की बत्ती पार करू  और ये कमवख्त,  पुलिस वाले की तरह हाथ दिखाते और व्हिसिल बजाते हुए मेरी नैया को सड़क किनारे खड़ा करके भारी भरकम चालान मेरे हाथ में थमा दें । और बस फिर वही हुआ, जिसका डर था  ............................जिन्दगी की गाडी जाम के झाम में ही फंसकर रह गई।





कभी हाथ, दीवारों पे जडी देखता हूँ,
मेज और  दराजों में  पडी देखता हूँ।

कम्वख्त वक्त का मारा हूँ, ऐ दोस्त,
इसलिए हर घड़ी, मैं  घड़ी देखता हूँ।।
 
लांघा न मेरा दर,कभी तूने फिर भी,
पल-पल सामने तुझे खड़ी देखता हूँ।

जो गुमसुम चलूं, दरख्तों के साए में,
राहें- मोड़ पर तुझे मैं अड़ी देखता हूँ।

थककर के मयखाने का, जो करूँ रुख,
तेरी मद भरी आँखें, मैं बड़ी देखता हूँ।

खुद को देखता हूँ, बिखरते हुए जब,
हाथों में तेरे प्रेम की हथकड़ी देखता हूँ।

यादों की बारात, लौट आती  है द्वारे,
शहर में जब कोई घुड़चडी देखता हूँ।

गूँजती है कानों में वही खिलखिलाहट,
हँसी की जब कोई फुलझड़ी देखता हूँ।

आईने में दीखता है, जब तेरा अक्स,
अश्कों की  आखों में  झड़ी देखता हूँ।

कम्वख्त वक्त का मारा हूँ, ऐ दोस्त,
इसलिए हर घड़ी, मैं  घड़ी देखता हूँ।

Tuesday, November 27, 2012

गली से इठला के निकलती है,चांदनी भी अब तो


















देखके लट-घटा माथे पे उनके,मनमोर हो गए है, 
अफ़साने मुहब्बत के इत्तफ़ाक़,घनघोर हो गए है।

कलतक खाली प्लाट सा लगता था  ये दिल मुआ,
इसपे हुश्नो-आशिकी के अब, कई फ्लोर हो गए है। 

गली से इठला के गुजरती है, चांदनी भी अब तो, 
वो क्या कि चंदा के दीवाने, कई चकोर हो गए है। 

वो क्या जाने देखने की कला, टकटकी लगाकर,  
खुद की जिन्दगी से दिलजले जो, बोर हो गए है।   

राह चलते तनिक उनसे, कभी नजर क्या चुराई,  
नजरों में ही उनकी 'परचेत',अपुन चोर हो गए है।  

Monday, May 28, 2012

नवाबिन और कठपुतली !












पहनकर नकाब हसीनों ने, कुछ पर्दानशीनों ने,
गिन-गिनकर सितम ढाये, बेरहम महजबीनों ने !


लम्हें यूं भारी-भरकम गुजरे ,वादों की बौछारों से,
हफ़्तों को दिनों ने झेला, सालों को महीनों ने !


निष्कपटता,नेकनीयती की नक्काशी के साँचों में,
जौहरी को जमके परखा,सब खोटे-खरे नगीनों ने !

खुदकुशी कर गए वो सब , उस सड़ते रवा को देखकर,
जोत-सींच ऊपजाया जिसको ,जिनके खून-पसीनों ने !

डॉलरिया गस खिला रहे , ईंधन में आग लगा रहे,
अध-मरों को अबके पूरा, मार दिया कमीनों ने !


उड़ता ही देखते रहे सब, उस तंत्र के उपहास को,
कुछ जो फरेबियों ने उड़ाया, कुछ तमाशबीनों ने !


हैरान हैं बहुत नवाबिन के, शातिराना अंदाज से,
शिद्दत से खाया मगर 'परचेत', हर तीर सीनों ने !

Thursday, May 10, 2012

हर ज़ख्म दिल में महफूज़ न छुपाया होता!















तन्हा ही हर दर्द-ए-गम को न भुलाया होता,
मुदित सरगम तार वीणा का बजाया होता !


सरे वक्त जलते न पलकों पे अश्कों के दीये,
हर ज़ख्म दिल में महफूज़ न छुपाया होता!


चाह की मंडियों में अगर प्रेम बिकता बेगरज,
मुहब्बत का तनिक दांव हमने भी लगाया होता !


मुद्दतों से उनीन्दे शिथिल तृषित नयन आतुर,
भोंहें सहलाकर न इन्हें खुद ही सुलाया होता !


रास आ जाती सोहबत किंचित मुए चित को,
दीपक प्यार का इक हमने भी जलाया होता !


गैरों के जुर्म-कुसूर को भी अपना कबूलकर,
सर अपने हर तोहमत को न उठाया होता !


अगर मिलती न कम्वख्त ये खलिश 'परचेत',
मुकद्दर को हमने यूं पत्थर न बनाया होता !